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स्मृति शेष लता मंगेशकर: आशा भोसले बोलीं- उनसे पूछना था, क्या उन्हें पता था कि वह विलक्षण थीं

सार

लता दीदी का जन्म इंदौर में हुआ था। पिता दीनानाथ मंगेशकर एक कुशल रंगमंचीय गायक थे। दीनानाथ ने लता को पांच साल की उम्र से ही संगीत सिखाना शुरू कर दिया था। लता का मूल नाम हेमा था लेकिन उनके पिता ने अपने नाटक भावबंधन की किरदार लतिका के नाम पर उनका नाम लता रखा। सिर्फ 9 साल की उम्र में उन्होंने पहला सार्वजनिक गायन 1938 में शोलापुर के नूतन थिएटर में किया। इसमें उन्होंने राग खंभावति और दो मराठी गाने गाए।

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जब  हम छोटे थे, तो मैं दीदी के सबसे करीब थी। वह मुझे गोद में उठाकर , हर जगह भागती फिरती थीं। हम उन दिनों सांगली में रहते थे। हम दोनों एक-दूसरे से इतने जुड़े हुए थे कि वह मुझे हर दिन अपने साथ पाठशाला ले जाती थीं, आखिरकार एक दिन, शिक्षक ने हम दोनों को एक ही कक्षा में बैठाने से मना कर दिया। जब शिक्षक ने हम दोनों को वहां रहने से मना कर दिया तो हम लोग रोते हुए घर पहुंचे और फिर दीदी ने मेरे बिना पाठशाला जाने से मना कर दिया।

बाबा ने कहा, वह हमारे लिए एक निजी शिक्षक की व्यवस्था कर देंगे। यह उनके स्कूली जीवन का अंत था। मुझे याद आता है कि हम दोनों का पहला युगल गाना, मयूर पंख फिल्म से ‘ये बरखा बहार, सौतनिया के द्वार ना जा था। हमने शायद, 1950 में इस गाने की रिकॉर्डिंग की थी।

वहीदा रहमान, अभिनेत्री
लताजी के गायन का सबसे विशेष पहलू था नायिका के व्यक्तित्व के अनुसार अपनी आवाज को ढालना। वह खुद कहती थीं कि पहले आश्वस्त हो लेती हैं कि परदे पर कौन-सी नायिका गाने वाली है, उसकी शैली के अनुरूप गाती हूं। जब मैं उनका गाया कोई गाना सुनती हूं, तो फिल्म देखने से पहले मालूम हो जाता है कि उन्होंने गाना मीना कुमारी या मधुबाला या नूतन के लिए गाया है। मेरा एक प्रिय गाना है, ‘आज फिर जीने की तमन्ना है। हम लोग गाइड फिल्म के लिए उदयपुर में शूटिंग कर रहे थे। देव आनंद, गाना रिकॉर्ड करने बॉम्बे गए और बहुत परेशानी में वापस आए। 

उन्होंने अपनी समस्या विजय आनंद और मुझे बताई, ‘मैं इस गाने से खुश नहीं हूं। पता नहीं इस बार बर्मन दादा को क्या हुआ। वह अक्सर बेहतरीन गाने संगीतबद्ध करते हैं। हमने उन पर यह कहते हुए जोर दिया, आखिर एक बार सुन लेते हैं, दादा कैसे इतना अरुचिकर गाना बना सकते हैं?’ जब हमने गाना सुना, तो हम सबको पसंद आया और देव से जानना चाहा कि उन्हें इससे क्या दिक्कत है? 

हमने कहा, ‘गाना बहुत अच्छा है। कहानी में एकदम सटीक बैठेगा, संगीत अच्छा है और आवाज भी। मगर देव अडिग थे, ‘मुझे यह बिल्कुल पसंद नहीं है।’ तब गोल्डी (विजय आनंद) ने समझाया, ‘हम यहां एक महीने से इंतजार कर रहे हैं। चलो हम गाने को फिल्माते हैं, बॉम्बे लौट कर इसे देखेंगे। अगर यह तब भी तुम्हें पसंद नहीं आया तो फिर उदयपुर लौट कर इसकी जगह पर दूसरा गाना फिल्माएंगे। 

देव मान गए और हमने पांच दिन शूटिंग जारी रखी। जब हम, दिन के आखिर में होटल वापस आए तो सुना, यूनिट के सदस्य आज फिर जीने की तमन्ना है’ गुनगुना रहे हैं। शूटिंग के पांचवें और आखिरी दिन, देव ने कुबूला, ‘मैंने गलती कर दी। यह बहुत ही सुंदर गाना है। हमें इसे बदलने की जरूरत नहीं है।”

इसका ज्यादा श्रेय लता जी को दिया जाना चाहिए, न केवल गाने के लिए, बल्कि बर्मन दा के बहुत से तरानों के लिए भी उन्होंने फिल्मी परिस्थिति को ठीक से पहचान कर की कि चरित्र, समय और कहानी के अनुसार गाना किस मनोभाव में होगा; और एकदम सही मनोदशा में गाने को पेश किया। गाने के शुरू होने से पहले, एक दृश्य है, जिसमें देव आनंद, रॉसी को बताते हैं, जिसका चरित्र मैंने निभाया था। ‘कल तुम एक अधेड़ उम्र की स्त्री जैसी नजर आ रही थीं, जीवन से थकी हुई। आज तुम 16 वर्षीय लड़की जैसी दिख रही हो, आजाद और प्रफुल्लित। पंछी जैसे उड़ते हुए। फिर वह गाना शुरू होता है।

उसमें कितनी सारी भावनाएं थीं जब मैंने पहली बार सुना था, और वर्तमान में भी जब सुनती हूं, इतने वर्षों बाद, मुझे अब भी लगता है कि मैं खुशी से उछल पडूं। जैसे मैंने फिल्म में अभिनय किया था और सोचती हूं, ‘आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर मरने का इरादा है।’ 

वह गीत को, भावनाओं में पिरो देती थीं, तो हमारे लिए इसे परदे पर नकल करना बहुत आसान हो जाता था। लता जी का सबसे खास पहलू था कि वह कभी नहीं सोचतीं, ‘मैं एक महान गायिका हूं, मैं लता मंगेशकर हूं, इसलिए मैं कोई भी गाना किसी भी पुराने ढंग से गा सकती हूं। किसी भी गायक को ऐसा नहीं सोचना चाहिए। उन्होंने नायिकाओं की कई पीढ़ी के लिए गाया है, और अब तक गाती रहीं। लता जी के गुणों के विवरण के लिए शब्द काफी नहीं हैं।

लता ने पहली बार 1942 में मराठी फिल्म किटी हसाल के लिए गाना गाया लेकिन पिता दीनानाथ को बेटी का फिल्मों के लिए गाना पसंद नहीं आया और उन्होंने फिल्म से गीत हटवा दिया। पिता की मौत के समय लता 13 वर्ष की थीं। नवयुग चित्रपट फिल्म कंपनी के मालिक और इनके पिता के दोस्त मास्टर विनायक ने इनके परिवार को संभाला और लता मंगेशकर को गायक बनाने में मदद की।

दिलीप कुमार मानते थे बहन, उनके ताने के कारण सीख डाली उर्दू
लता को दिलीप साहब छोटी बहन मानते थे। 1974 में लंदन के रॉयल एल्बर्ट हॉल में लता अपना पहला कार्यक्रम कर रही थीं, वहां दिलीप भी मौजूद थे। लता पाकीजा के गाने इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा से । शुरुआत करना चाहती थीं, मगर दिलीप कुमार की नजर में ये गाना उतना उम्दा नहीं था और इसी बात पर वह लता से नाराज हो गए।

  • एक बार दिलीप कुमार ने हिंदी-उर्दू गाने गाते वक्त लता के मराठी उच्चारण पर टिप्पणी कर दी थी। इसके बाद उन्होंने उर्दू सीखने की ठान ली। किताब ‘लता मंगेशकर इन हर ओन वॉयस में उन्होंने इसका जिक्र किया उर्दू सीखने के लिए लता ने एक शिक्षक रखा और उर्दू पर पकड़ बनाई।
  • लता कहती थीं, यह हर किसी की जिंदगी में होता है कि सफलता से पहले असफलता मिलती है लेकिन कभी हार नहीं माननी चाहिए। आप जो चाहते हैं, एक दिन जरूर मिलेगा।
मोहम्मद रफी से वह साढ़े तीन साल का झगड़ा
60  के दशक में लता दी अपनी फिल्मों में गाना गाने के लिए रॉयल्टी लेना शुरू कर चुकी थीं, लेकिन उन्हें लगता था कि सभी गायकों को रॉयल्टी मिले तो अच्छा होगा। लता, मुकेश और तलत महमूद ने एक एसोसिएशन बनाई थी। उन सबने रिकॉर्डिंग कंपनी एचएमवी और प्रोड्यूसर्स से मांग रखी कि गायकों को रॉयल्टी मिलनी चाहिए, लेकिन उनकी मांग पर कोई सुनवाई नहीं हुई।

फिर सबने एचएमवी के लिए रिकॉर्ड करना ही बंद कर दिया। तब कुछ और रिकॉर्डिंग कंपनी ने मोहम्मद रफी को समझाया कि ये गायक क्यों झगड़े पर उतारू हैं। गाने के लिए जब पैसा मिलता है तो रॉयल्टी क्यों मांगी जा रही है।

उन्होंने रॉयल्टी लेने से मना कर दिया। मुकेश ने लता से कहा, ‘लता दीदी रफी साहब को बुलाकर मामला सुलझा लिया जाए। फिर सबने रफी से मुलाकात की। सबने रफी साहब को समझाया तो वह गुस्से में आ गए। वह लता की तरफ देखकर बोले, ‘मुझे क्या समझा रहे हो। ये जो महारानी बैठी हैं, इसी से बात करो।’ तो इस पर लता ने भी गुस्से में कह दिया, ‘आपने मुझे सही समझा, मैं महारानी ही हूं।’

इस पर रफी ने कहा, ‘मैं तुम्हारे साथ गाने ही नहीं गाऊंगा।’ लता ने भी पलट कर कह दिया, आप ये तकलीफ मत करिए, मैं ही नहीं गाऊंगी आपके साथ।’ इस तरह से लता और रफी के बीच करीब साढ़े तीन साल तक झगड़ा चला।

1973 में लता मंगेशकर को सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायन के लिए पहला राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला ‘बीती ना बिताई रैना..’ गाने के लिए। फिल्म ‘कोरा कागज’ के ‘रूठे रूठे पिया मनाऊं कैसे…’ गाने के लिए दूसरा और तीसरा राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार फिल्म ‘लेकिन’ के गाने ‘यारा सीली सीली…’ के लिए मिला।

जब ये सुरीली आवाज भी हो गई खारिज….
संगीत की दुनिया में आठ दशक तक राज करने वाली लता मंगेशकर के गाने को एक बार खारिज कर दिया गया था। फिल्म ‘शहीद’ के निर्माता शशधर मुखर्जी ने यह कहते हुए लता को खारिज किया था कि उनकी आवाज बहुत पतली है।

  • -पांच साल की थीं, जब अपने पिता के नाटक में अभिनय किया। इसके बाद 1945 में मास्टर विनायक की पहली हिंदी फिल्म बड़ी मां में किरदार निभाया।
  • हिन्दी सिनेमा के शो मैन कहे जाने वाले राजकपूर लता की आवाज से इस कदर प्रभावित थे कि उन्होंने लता मंगेश्कर को सरस्वती का दर्जा तक दे रखा था। 60 के दशक में वह बॉलीवुड में पार्श्वगायिकाओं की महारानी कही जाने लगीं।

साइकिल खरीदना चाहती थीं…
लता कभी एक अदद साइकिल के सपने देखा करती थीं। बचपन में सहेलियों की साइकिल चलाना सीखा भी, लेकिन उस वक्त माली हालत इतनी कमजोर थी कि वह साइकिल नहीं खरीद सकती थीं। जब वह फिल्मों में गायन करने लगीं और आर्थिक स्थिति अच्छी हो गई, तब तक साइकिल चलाने की उम्र बीत गई।

हरीश भिमाणी की किताब ह इन सर्च ऑफ लता मंगेशकर’ में उनके एक गीतकार पर भड़कने का जिक्र है। दरअसल, लता की किसी चीज की जब तारीफ की जाती तो वह उसे तारीफ करने वाले को दे दिया करती थीं। ये उन दिनों की बात है, जब फिल्म महल की शूटिंग हो रही थी। गीतकार नक्शाब ने उनकी कलम की तारीफ कर दी। लता ने उन्हें कलम थमा दी लेकिन वह भूल गई कि इस कलम पर उनका नाम खुदा था। नक्शाब यह कलम इंडस्ट्री में सबको दिखाकर यह जताने की कोशिश करने लगे कि लता और उनके बीच कुछ चल रहा है। जब यह बात लता को पता लगी तो पहले वह खामोश रहीं। 

एक और रिकॉर्डिंग के दौरान नक्शाब और लता का आमना सामना हुआ, तो उस समय भी गीतकार यह जताने की कोशिश कर रहे थे कि लता उनके प्यार में पड़ गई हैं। यहां भी लता ने गुस्सा पी लिया। एक दिन नक्शाब लता के घर तक पहुंच गए। वह अपनी बहनों के साथ अहाते में खेल रहीं थीं। यहां लता से नहीं रहा गया और गीतकार को सड़क पर ले गई और कहा, मेरी इजाजत के बिना घर आने की हिम्मत कैसे हुई। नक्शाब को धमकाते हुए उन्होंने कहा, अगर दोबारा यहां देखा तो टुकड़े करके गटर में फेंक दूंगी। भूलना मत मैं मराठा हूं।

किशोर कुमार से पहली दिलचस्प मुलाकात
40 के दशक में लता ने फिल्मों में गाना शुरू ही किया था, तब वह अपने घर से लोकल ट्रेन से मलाड जाती थीं। वहां से उतरकर स्टूडियो बॉम्बे टॉकीज जाती थीं। रास्ते में एक लड़का उन्हें घूरता और पीछा करता था। एक बार लता खेमचंद प्रकाश की फिल्म में गाना गा रही थीं। 

तभी वह लड़का भी स्टूडियो पहुंच गया। उसे वहां देख लता ने खेमचंद से कहा कि चाचा, ये लड़का मेरा पीछा करता रहता है। तब खेमचंद ने कहा, अरे! ये तो अपने अशोक कुमार का छोटा भाई किशोर है। उसके बाद दोनों ने उसी फिल्म में पहली बार साथ में गाना गाया।

पहला गाना, जिससे जानने लगे लोग….
1949 में आएगा आने वाला’ के बाद उनके प्रशंसकों की संख्या बढ़ने लगी। इस बीच उस समय के सभी प्रसिद्ध संगीतकारों के साथ लता ने काम किया। अनिल बिस्वास, सलिल चौधरी, शंकर जयकिशन, एसडी बर्मन, आरडी बर्मन, नौशाद, मदनमोहन, सी. रामचंद्र इत्यादि सभी संगीतकारों ने उनकी प्रतिभा का लोहा मान लिया।

विस्तार

जब  हम छोटे थे, तो मैं दीदी के सबसे करीब थी। वह मुझे गोद में उठाकर , हर जगह भागती फिरती थीं। हम उन दिनों सांगली में रहते थे। हम दोनों एक-दूसरे से इतने जुड़े हुए थे कि वह मुझे हर दिन अपने साथ पाठशाला ले जाती थीं, आखिरकार एक दिन, शिक्षक ने हम दोनों को एक ही कक्षा में बैठाने से मना कर दिया। जब शिक्षक ने हम दोनों को वहां रहने से मना कर दिया तो हम लोग रोते हुए घर पहुंचे और फिर दीदी ने मेरे बिना पाठशाला जाने से मना कर दिया।

बाबा ने कहा, वह हमारे लिए एक निजी शिक्षक की व्यवस्था कर देंगे। यह उनके स्कूली जीवन का अंत था। मुझे याद आता है कि हम दोनों का पहला युगल गाना, मयूर पंख फिल्म से ‘ये बरखा बहार, सौतनिया के द्वार ना जा था। हमने शायद, 1950 में इस गाने की रिकॉर्डिंग की थी।

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