जयंती जी, बात शुरू करते हैं ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’ से। संजय लीला भंसाली के साथ इतने बड़े बजट की फिल्म बनाना और एक ऐसे किरदार पर फिल्म बनाना जिसके बारे में बहुत कम लोगों को पता है, इसके लिए कैसे आपने हौसला जुटाया?
हमारे देश में महिला प्रधान फिल्में दूसरे दर्जे की फिल्में कही जाती हैं क्योंकि सिनेमा हीरो प्रधान उद्योग रहा है। अगर आप देखेंगे तो दर्शक भी टिकट खिड़की पर सबसे पहले यही पूछता है कि कौन से हीरो की पिक्चर है? कोन सी हीरोइन, कोई नहीं पूछता। जब हम सैटेलाइट, डिजिटल या म्यूजिक का व्यापार करते हैं तो हमारी भी वही आदत है कि हम पूछते हैं, कौन सा हीरो है? उस दौरान हमने जब फिल्म ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’ की कहानी सुनी और ये लड़की की कहानी है। और, इतनी दमदार कहानी। ऊपर से संजय लीला भंसाली इसे बनाएं तो सोने पे सुहागा बोल सकते हैं। भंसाली छोटी से छोटी बात को इतना बड़ा रूप देते हैं। इतनी डिटेलिंग करते हैं। ये हमारे देश के सबसे बड़े निर्देशक बोले जा सकते हैं। ऐसा नहीं कि बगैर निर्देशकों के फिल्में हिट नहीं होतीं। एक मसाला फिल्म होगी तो उसके भी अच्छे नंबर आ जाएंगे। लेकिन, इनकी फिल्म में क्रेडिट मिलेगी। मुझे लगता है कि भंसाली अपनी फिल्म में हर सीन को पेंटिंग बना देते हैं और वह भी जिंदा पेंटिंग। विजुअली दिखने वाली। ये बहुत बड़ा क्रिएशन है।
इंडस्ट्री में चर्चा ये भी रही है कि संजय लीला भंसाली ‘पद्मावत’ बनाने के बाद जब अगली फिल्म के लिए निवेशक तलाश कर रहे थे तो आप ने इनका बहुत बड़ा साथ दिया है।
नहीं, ये बड़प्पन होगा अगर किसी ने ऐसा बोला है तो। हम इतने बड़े लोग नहीं है। हम छोटे से लोग हैं। हमने छोटी सी दुकान चलाकर किराना शॉप से वीडियो लाइब्रेरी से करियर शुरू किया है। इस इंडस्ट्री में पहली बार लोगों ने हमें स्वीकार किया कि हम काम कर सकते हैं। इस इंडस्ट्री में अगर आप देखने जाए पिछले 10-20 साल में ज्यादा से ज्यादा स्टार्स फिल्म लाइन से ही आए। एक रणवीर सिंह हैं जो बाहर से आए हैं। वैसी ही हमारी कहानी है। हम बाहर वाले लोग हैं और इस इंडस्ट्री में खुद को स्वीकार करवाना ही बहुत बड़ी बात है। हमने इस पैंतीस साल की यात्रा में इज्जत कमाई है। आपने पैसों की बात निकाली तो हमने ये इज्जत बैंकों में कमाई क्योंकि हमारी इंडस्ट्री इतनी रिस्की है कि कोई बैंक जल्दी से रिस्क लेता नहीं है। हमने शुरू में कम पैसे लिए, फिर बड़े लिए तो इस तरह हमारी बैंकिंग जर्नी भी रही और बैंक के साथ हमने अलग अलग काम किया। इस दौरान हमने बैंकों को सिनेमा का धंधा भी सिखाया। ये इतना आसान भी नहीं है। अगर बिल्डिंग बनाओगे या फैक्ट्री बनाओगे तो बैंक को पता है। फिल्में कैसे बनती है, किसी बैंकर को नहीं पता, ना ही उसके पास ऐसा कोई स्टाफ है जो उन्हें समझा सके। हमारी ये सतत चलने वाली प्रक्रिया है कि हम बैंकों को भी सिने उद्योग के लिए प्रशिक्षित कर रहे हैं। हम भी जानते हैं कि बैंकों के पास लोगों के पैसे हैं। तो, इसमें धंधे का रिस्क तो हमारा है। बैंको के साथ आने से ही ये इतनी बड़ी फिल्म बनी है।
दो साल महामारी के गुजर गए और ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’ के बाद और भी फिल्में आपके पास हैं। आपको क्या लगता है कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के सामने सबसे बड़ी चुनौती क्या है?
इसमें दो बातें करना चाहूंगा क्योंकि मैंने 35-38 साल में सिनेमा को तकनीक के तमाम सारे बदलाव से गुजरते देखा है। धंधा चेंज होते हुए देखा है। निर्माताओं की चुनौतियां देखी हैं। कंपनियों की चैलेंज देखी है मैंने और आप देखेंगे तो एक जमाना था जब हमने वीडियो से शुरुआत की। वीडियो लाइब्रेरी बनी। फिर कॉपीराइट बेचना शुरू हुआ। नहीं तो निर्माता तो वीडियो से नफरत करते थे। हमने ही वीडियो को बेचने का फॉर्मूला बनाया।
तब जाकर लोगों को समझ आया कि वीडियो राइट्स में भी पैसा मिल सकता है?
हम वहां से स्टार्ट हुए कि उस जमाने में प्रोड्यूसर बोलते थे कि वीडियो वाले चोर हैं। फिर उनके राइट्स बिकने शुरू हुए। ये उन दिनों की बात है जब मैंने ऐसे ऐसे विज्ञापन देखे कि ये सिर्फ थिएटर के लिए बनी फिल्म है। उस समय के एक बड़े निर्देशक इस तरह की फिल्में बनाते थे कि ये फिल्म किसी भी तरह वीडियो में न देखी जाएं। फिर म्यूज़िकल पिक्चरें चलने लगीं। फिर दूरदर्शन का निजीकरण हुआ। सुभाष चंद्रा 1992 में सैटेलाइट टेलीविजन लाए और उसके बाद अब डिजिटल आया है। सिनेमा की इस यात्रा के दौरान मैंने तकनीक को बदलते देखा है। सिनेमा का बाजार भी इसी के साथ बदला। अभी बीते दो साल के दौरान डिजिटल का उछाल आया। जैसे जैसे कोरोना बढ़ता गया। डिजिटल का कारोबार भी उतना ही बढ़ता गया। मुझे लगता है डिजिटल की जो तरक्की 10 साल में होनी थी, वह कोरोना की वजह से एक साल में हो गई। हमने इसी संक्रमण काल में फिल्म ‘आरआरआर’ खरीदी। इस फिल्म का हिस्सा बनने के बाद मुझे लगा कि अब थिएटर में जो पिक्चरें आएगी, उसमें आपको बहुत अच्छी कहानी देनी होगी, बहुत बड़ी बात करनी पड़ेगी और विजुअली बहुत बड़ा इंटरटेनमेंट देना होगा। तभी आप दो घंटे के लिए दर्शक को थिएटर में खीच सकते हैं। हम खुद को भाग्यशाली मानते हैं कि हम संजय लीला भंसाली, आर आऱ राजामौली और शंकर जैसे बड़े निर्देशकों के साथ जुड़े।