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यूक्रेन संकट: अपने ‘अमेरिका समर्थक’ रुख पर अब सफाई देने में जुटी नेपाल सरकार

वर्ल्ड डेस्क, अमर उजाला, काठमांडू
Published by: प्रदीप पाण्डेय
Updated Fri, 11 Mar 2022 09:19 AM IST

सार

प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा की सरकार बनने के बाद सूरत बदली है। इस महीने देउबा सरकार का जो रुख सामने आया, उससे संदेश गया कि नेपाल अब अमेरिकी खेमे में शामिल हो रहा है।

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यूक्रेन विवाद में संयुक्त राष्ट्र में रूस के खिलाफ मतदान करने के बाद अब नेपाल सरकार यह सफाई देने में जुट गई है कि इस मसले में उसने किसी का पक्ष नहीं लिया है। हाल में पहले संयुक्त राष्ट्र महासभा और बाद में संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार परिषद की बैठकों में नेपाल ने रूस के खिलाफ लाए गए प्रस्तावों का समर्थन किया था। इसे इस बात का संकेत समझा गया कि नेपाली कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन की सरकार अब अमेरिकी पाले में चली गई है। इसके पहले नेपाल सरकार ने तमाम विरोध को दरकिनार कर अमेरिकी संस्था मिलेनियम चैलेंज कॉरपोरेशन (एमसीसी) से 50 करोड़ डॉलर की सहायता लेने से संबंधित अनुमोदन प्रस्ताव को संसद में पारित कराया था।

नेपाल के विदेश मंत्री नारायण खड़का ने अब कहा है कि नेपाल हमेशा ही विश्व शांति के पक्ष में रहा है। वह छोटे देशों की संप्रभुता और प्रादेशिक अखंडता का समर्थन करता है। चूंकि रूस ने यूक्रेन पर हमला किया, इसीलिए नेपाल ने उसके खिलाफ लाए गए प्रस्तावों का समर्थन किया है। पर्यवेक्षकों ने खड़का के इस बयान को महत्त्वपूर्ण बताया है। उनके मुताबिक पिछले साल 22 सितंबर को विदेश मंत्री बनने के बाद यह पहला मौका है, जब खड़का ने प्रेस कांफ्रेंस की।

विश्लेषकों के मुताबिक नेपाल में अमेरिका और चीन दोनों का काफी दखल है। नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टियों का रुख चीन की तरफ झुका माना जाता है। अभी हाल तक ये समझा जाता था कि नेपाल में चीन का असर बढ़ रहा है। लेकिन प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा की सरकार बनने के बाद सूरत बदली है। इस महीने देउबा सरकार का जो रुख सामने आया, उससे संदेश गया कि नेपाल अब अमेरिकी खेमे में शामिल हो रहा है।
इसको लेकर नेपाली जनमत के एक हिस्से में तीखा विरध है।

विश्लेषकों ने ध्यान दिलाया है कि नेपाल ने इस बार जो रुख लिया, वह न सिर्फ चीन के रुख के खिलाफ है, बल्कि भारत के रुख से भी अलग है। भारत ने संयुक्त राष्ट्र में उन दोनों मौकों पर खुद को मतदान से अलग रखा। देउबा सरकार के इस रुख की नेपाल के कई नेताओं ने कड़ी आलोचना की है। पूर्व प्रधानमंत्री झलानाथ खनाल, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (यूएमएल) के विदेश नीति प्रमुख रंजन भट्टराई, और पूर्व उप प्रधानमंत्री रघुवीर माहासेठ ने कहा है कि देउबा सरकार ने नेपाल को उसकी चिर-परिचित गुटनिरपेक्षता की नीति से हटा दिया है।

कुछ खबरों के मुताबिक यूक्रेन विवाद पर नेपाल सरकार ने जो रुख अपनाया, उसको लेकर सत्ताधारी गठबंधन में शामिल दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों- माओइस्ट सेंटर और यूनिफाइड सोशलिस्ट में भी बेचैनी है। इन दोनों पार्टियों ने पहले एमसीसी से करार का भी विरोध किया था। लेकिन बाद में उन्होंने प्रधानमंत्री देउबा की लाइन को मान लिया। बताया जाता है कि उसके तुरंत बाद यूक्रेन के मामले भी सरकार के अमेरिका समर्थक रुख से इन पार्टियों के लिए असहज स्थिति बनी है। विदेश मंत्री खड़का के इस मामले में प्रेस कांफ्रेंस कर सफाई देने को इसी सिलसिले में देखा गया है। अब इस पर अमेरिका विरोधी खेमे की क्या प्रतिक्रिया आती है, पर्यवेक्षकों की निगाह उसे देखने पर टिकी है।

विस्तार

यूक्रेन विवाद में संयुक्त राष्ट्र में रूस के खिलाफ मतदान करने के बाद अब नेपाल सरकार यह सफाई देने में जुट गई है कि इस मसले में उसने किसी का पक्ष नहीं लिया है। हाल में पहले संयुक्त राष्ट्र महासभा और बाद में संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार परिषद की बैठकों में नेपाल ने रूस के खिलाफ लाए गए प्रस्तावों का समर्थन किया था। इसे इस बात का संकेत समझा गया कि नेपाली कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन की सरकार अब अमेरिकी पाले में चली गई है। इसके पहले नेपाल सरकार ने तमाम विरोध को दरकिनार कर अमेरिकी संस्था मिलेनियम चैलेंज कॉरपोरेशन (एमसीसी) से 50 करोड़ डॉलर की सहायता लेने से संबंधित अनुमोदन प्रस्ताव को संसद में पारित कराया था।

नेपाल के विदेश मंत्री नारायण खड़का ने अब कहा है कि नेपाल हमेशा ही विश्व शांति के पक्ष में रहा है। वह छोटे देशों की संप्रभुता और प्रादेशिक अखंडता का समर्थन करता है। चूंकि रूस ने यूक्रेन पर हमला किया, इसीलिए नेपाल ने उसके खिलाफ लाए गए प्रस्तावों का समर्थन किया है। पर्यवेक्षकों ने खड़का के इस बयान को महत्त्वपूर्ण बताया है। उनके मुताबिक पिछले साल 22 सितंबर को विदेश मंत्री बनने के बाद यह पहला मौका है, जब खड़का ने प्रेस कांफ्रेंस की।

विश्लेषकों के मुताबिक नेपाल में अमेरिका और चीन दोनों का काफी दखल है। नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टियों का रुख चीन की तरफ झुका माना जाता है। अभी हाल तक ये समझा जाता था कि नेपाल में चीन का असर बढ़ रहा है। लेकिन प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा की सरकार बनने के बाद सूरत बदली है। इस महीने देउबा सरकार का जो रुख सामने आया, उससे संदेश गया कि नेपाल अब अमेरिकी खेमे में शामिल हो रहा है।

इसको लेकर नेपाली जनमत के एक हिस्से में तीखा विरध है।

विश्लेषकों ने ध्यान दिलाया है कि नेपाल ने इस बार जो रुख लिया, वह न सिर्फ चीन के रुख के खिलाफ है, बल्कि भारत के रुख से भी अलग है। भारत ने संयुक्त राष्ट्र में उन दोनों मौकों पर खुद को मतदान से अलग रखा। देउबा सरकार के इस रुख की नेपाल के कई नेताओं ने कड़ी आलोचना की है। पूर्व प्रधानमंत्री झलानाथ खनाल, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (यूएमएल) के विदेश नीति प्रमुख रंजन भट्टराई, और पूर्व उप प्रधानमंत्री रघुवीर माहासेठ ने कहा है कि देउबा सरकार ने नेपाल को उसकी चिर-परिचित गुटनिरपेक्षता की नीति से हटा दिया है।

कुछ खबरों के मुताबिक यूक्रेन विवाद पर नेपाल सरकार ने जो रुख अपनाया, उसको लेकर सत्ताधारी गठबंधन में शामिल दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों- माओइस्ट सेंटर और यूनिफाइड सोशलिस्ट में भी बेचैनी है। इन दोनों पार्टियों ने पहले एमसीसी से करार का भी विरोध किया था। लेकिन बाद में उन्होंने प्रधानमंत्री देउबा की लाइन को मान लिया। बताया जाता है कि उसके तुरंत बाद यूक्रेन के मामले भी सरकार के अमेरिका समर्थक रुख से इन पार्टियों के लिए असहज स्थिति बनी है। विदेश मंत्री खड़का के इस मामले में प्रेस कांफ्रेंस कर सफाई देने को इसी सिलसिले में देखा गया है। अब इस पर अमेरिका विरोधी खेमे की क्या प्रतिक्रिया आती है, पर्यवेक्षकों की निगाह उसे देखने पर टिकी है।

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