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आजादी का अमृत महोत्सव : लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की जन्मस्थली के भाल पर तरक्की के ‘तिलक’ की दरकार

रत्नागिरी शहर की सभी सड़कें बेहद खराब हैं। यहां तक कि तिलक स्मारक के सामने की सड़क भी बदहाल है। कोंकण की खूबसूरत वादियों के बीच तीन तरफ अरब सागर से घिरे इस शहर के लोग सरकारों के रवैये से खफा हैं। एक बात सबसे ज्यादा खटकती है कि यहां सभी जानकारियां सिर्फ मराठी में हैं। ताज्जुब होता है कि जिन्हें जवाहरलाल नेहरू ने भारतीय क्रांति का जनक बताया था, उन तिलक को महज एक भाषा में बांध दिया गया है।

महात्मा गांधी ने जिस शख्स को मरणोपरांत आधुनिक भारत का निर्माता कहा था, वक्त की एक सदी गुजरने के बाद भी उसकी जन्मस्थली रत्नागिरी को विकास की दरकार है। यह शहर आधुनिकता की आमदरफ्त से कोसों दूर है। मैं बात कर रहा हूं लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक मूल नाम केशव गंगाधर तिलक और उनकी जन्मस्थली रत्नागिरी की। 

कोंकण संस्कृति और संस्कारों में रचा बसा कस्बा रत्नागिरी एक बानगी है कि हम अपने उन राष्ट्रनायकों का नाम कितनी बार लेते हैं और कितनी बार उनकी सुध लेते हैं। यहां आकर जाहिर होता है कि आज के नेता मंचों से वोटों की खातिर तिलक का नाम तो बार बार लेते हैं लेकिन उनकी धरोहर को सहेजने की महज रस्म अदायगी की जाती है। 

इसकी हकीकत रत्नागिरी स्टेशन पर ही मिल जाती है। मैं तड़के करीब 3:30 बजे प्लेटफार्म पर उतरता हूं। गिनती के 10-12 लोग उस वक्त चहलकदमी कर रहे हैं या किसी ट्रेन के इंतजार में फर्श पर लेटे हुए हैं। स्टेशन के बाहर चाय बेचने वाला लोगों की सुबह की तलब को शांत करने की जुगत में है। उसके हावभाव से लग रहा है कि धंधा शुरू हो, वह इस इंतजार में है। स्टेशन पर रिटायरिंग रूम बंद है… दलील दी गई कि कोरोना संक्रमण के कारण बंद है। 

स्टेशन के बाहर 10-12 रिक्शे खड़े हैं। जाहिर है काम की तलाश है, क्योंकि बाहर जाने वाले उस वक्त मात्र दो-तीन लोग ही हैं। स्टेशन के बिल्कुल सामने महज एक लॉज है। इसके अलावा वहां कोई विकल्प नहीं, क्योंकि बाकी लॉज शहर में हैं, जो वहां से करीब 10 किलोमीटर दूर है। रास्ते में कहीं-कहीं स्ट्रीटलाइट रोशनी की गवाही दे रहीं हैं, जो नाकाफी हैं।

बहरहाल, रात स्टेशन के सामने वाले लॉज में गुजारने के बाद सुबह तिलक स्मारक के दर्शन के लिए निकलता हूं। मन में खासा उत्साह है कि ‘स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और इसे लेकर रहूंगा’ का उद्घोष करने वाले राष्ट्रनायक की जन्मस्थली कैसी होगी…किस परिवेश में वह खेले-कूदे होंगे। यह अमर उद्घोष उन्होंने लखनऊ की एक रैली के दौरान किया था। मैं ऑटो में था, लेकिन आंखें उस महान सेनानी के शहर को जानने के लिए हर पल बाहर झांक रही थीं। 

स्टेशन से करीब 9 किलोमीटर दूर रिक्शा वाले ने कहा- अब हम स्मारक के नजदीक हैं। यह झाड़गांव इलाका है। मुख्य सड़क से तिलक आली.. बोले तो गली में मुड़ने के चंद कदम पहले एक  पट्टिका लगी है, जिसमें संकेतक के साथ तिलक स्मारक लिखा हुआ है। इसके अलावा कहीं कोई संकेतक नहीं। गली शुरू होने के आधा फर्लांग पर मकान आता है, जो तिलक स्मारक है। यह आम मराठी-कोंकणी परिवेश का आवासीय व व्यावसायिक मिलाजुला स्थान है। 

सुबह करीब 11:00 बजे मैं अकेला था वहां… बड़े से गेट की तस्वीर लेता हूं,  वहां बोर्ड पर लिखा हुआ है- तिलक जन्मस्थान। अंदर बाएं बाजू में एक चबूतरे पर तिलक की आदमकद प्रतिमा है। सामने कोंकणी शैली का वह मकान है, जहां तिलक का जन्म हुआ था। खपरैल की छत वाला यह मकान बड़े से परिसर में है। चंद सीढ़ियों के बाद एक छोटा सा बरामदा है। इसके दाएं बाजू एक महिला कुर्सी पर टेबल पर बैठी है। उसके सामने आगंतुक रजिस्टर है। 

महिला को सिर्फ मराठी आती है… उससे समझने की जद्दोजहद के बीच तीन-चार  दर्शनार्थी आ जाते हैं। वे मुंबई और कोल्हापुर के थे। इन लोगों की सहायता से मैं महिला से बात कर पाता हूं। पता चलता है कि उसके पति रविंद्र सावंत यहां चौकीदार हैं। उसकी गैरहाजिरी में वह यहां बैठ जाती है। यह लोग स्मारक परिसर के पीछे ही रहते हैं। थोड़ी देर में चौकीदार रविंद्र आ जाते हैं। उन्हें स्मारक की ज्यादा जानकारी नहीं है। वह 10 वर्ष से यहां काम कर रहे हैं। 

रविंद्र बताते हैं स्मारक सुबह 10:00 बजे से शाम 5:30 बजे तक खुलता है और सोमवार को अवकाश रहता है। बरामदे में तिलक की यशगाथा श्वेत-श्याम और कुछ रंगीन चित्रों में चस्पा है। बरामदे के बाएं एक खोली में तिलक का जन्म हुआ था। कमरे में तिलक की पगड़ी,  कांधे पर रखने वाला पटका और कुछ सामान कांच की पारदर्शी आलमारी में सहेजा गया है। इसके दाईं ओर एक और कमरा है। इससे दो सीढ़ियां उतरकर नीचे एक कमरा है। 

जिसकी बनावट से लगता है कि रसोईघर रहा होगा। इस कमरे में तांबे का एक भांडा सहेजा गया है। इसी प्रकार पीछे के एक कमरे में तिलक की जीवनगाथा को चित्रों के जरिये सजाया गया है। राज्य पुरातत्व विभाग में कार्यरत रुचि शेटे खंदारी बताती हैं कि पहले मकान का फर्श कच्चा था। गोबर से लीपा जाता था। 1976 में राज्य पुरातत्व विभाग ने अधिगृहीत किया। इसके बाद इसे पक्का किया गया।

चौकीदार रविंद्र सावंत बताते हैं कि यह दो मंजिला मकान है यानी तल मंजिल और प्रथम मंजिल। तल मंजिल में नीचे 9 कमरे और ऊपर प्रथम मंजिल में तीन कमरे हैं। हालांकि ऊपर का हिस्सा बंद किया हुआ है। सामने बालकनी है। बाएं से ऊपर जाने की सीढ़ियां हैं। मकान के पीछे खुली जगह है, जिसकी समाप्ति पर सुविधा आदि की जगह है, जो इस वक्त बेहद गंदे हैं। पीछे के अहाते में भी कोई विशेष साफ-सफाई नहीं थी। 

एक बात यहां सबसे ज्यादा खटकती है कि यहां सभी सूचनाएं और जानकारी सिर्फ मराठी में हैं। ताज्जुब होता है कि तिलक जैसे बड़े राष्ट्रनायक को महज एक भाषा में बांध दिया गया है। तिलक, जिन्हें प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भारतीय क्रांति का जनक बताया था । इस बारे में रविंद्र बताते हैं कि यहां ज्यादातर लोग पुणे, मुंबई या कोल्हापुर से आते हैं। सामान्य दिनों में यहां 50 से 100 दर्शनार्थी आते हैं, जबकि छुट्टियों में यह आंकड़ा 300 से 400 तक पहुंच जाता है। 

प्रदेश के बाहर से कभी-कभार कोई आता है। मुंबई से आए एक दर्शनार्थी मराठी में कहते हैं कि तिलक अंग्रेज और अंग्रेजी के विरोधी थे। मैं उन्हें दुरुस्त करते हुए बताता हूं कि वह अंग्रेजों के विरोधी तो थे, लेकिन अंग्रेजी में खुद उन्होंने अखबार मराठा दर्पण निकाला था। इस बारे में पुरातत्व विभाग की रुचि कहती हैं कि आपका सुझाव अच्छा है कि वहां मराठी के अलावा हिंदी और अंग्रेजी में जानकारी होनी चाहिए ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग तिलक तक पहुंच सकें और उन्हें जान सकें।

पुरातत्व विभाग के सहायक निदेशक विलास वाहणे बताते हैं कि लंबे इंतजार के बाद राज्य सरकार ने दो करोड़ रुपये की राशि मंजूर की है। वे उम्मीद जाहिर करते हैं कि अगले दो साल में तिलक जन्मस्थली की सूरत बदल जाएगी। इस राशि से जन्मस्थल और स्मारक के रखरखाव के काम कराए जाएंगे।

…तो महान लोगों का अपमान होगा
अनुकरणीय पहल…पूरे शहर में किसी बैनर-पोस्टर पर तिलक का नाम या चित्र नहीं दिखा। सरकारी या गैरसरकारी संस्थानों पर भी तिलक के नाम की कोई मुहर नहीं मिली। शहरों और संस्थानों के बदलने के इस घनघोर दौर में यहां यह बात हैरान करने वाली है। लॉज संचालक राजीव बताते हैं कि यहां लोग यह सब पसंद नहीं करते कि उनके नायकों के नामों का दुरुपयोग किया जाए। पोस्टरों बैनरों में नाम और फ़ोटो छापकर बाद में वे पैरों में आते हैं। यह महान लोगों का अपमान है। यहां मुझे तो कही किसी स्कूल-कॉलेज का नाम भी तिलक पर नहीं मिला। ये वाकई अनुकरणीय पहल है।

स्मारक पर तिलक साहित्यहीन
तिलक प्रखर राष्ट्रवादी, ख्यात वकील, शिक्षक, समाज सुधारक और स्वतंत्रता सेनानी के साथ ही क्रांतिकारी लेखक भी थे। 1908 में लोकमान्य तिलक ने क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी और क्रांतिकारी खुदीराम बोस के बम हमले का समर्थन किया था। इस वजह से तिलक पर राजद्रोह और आतंकवाद को उकसाने का आरोप लगाकर उन्हें छह साल की जेल की सजा काटने के लिए मांडले, बर्मा (म्यांमार) भेज दिया गया। मांडले जेल में, तिलक ने अपनी महान कृति श्रीमद भगवद्गीता रहस्य (“भगवद्गीता का रहस्य”) की रचना की थी।

इससे पहले, 1893 में, उन्होंने द ओरियन और द आर्कटिक होम इन वेदाज कृतियां प्रकाशित कराईं। दोनों कार्यों का उद्देश्य हिंदू संस्कृति को वैदिक धर्म के उत्तराधिकारी के रूप में बढ़ावा देना था। इतनी महान कृतियों का तिलक के स्मारक पर न होना जाहिर करता है कि उनके कृतित्व और व्यक्तित्व को सहेजने का प्रयास अधूरा है। पुरातत्व विभाग के सहायक निदेशक विलास वाहणे बताते हैं कि तिलक साहित्य को लेकर कोई आधिकारिक वाचनालय या संदर्भगृह नहीं है। हालांकि वे मानते हैं कि यह होना चाहिए।

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