न्यूज डेस्क, अमर उजाला, नई दिल्ली
Published by: अभिषेक दीक्षित
Updated Fri, 28 Jan 2022 11:12 PM IST
सार
जस्टिस ए एम खानविलकर, जस्टिस दिनेश माहेश्वरी और जस्टिस सीटी रविकुमार की पीठ ने महाराष्ट्र विधानसभा द्वारा 12 भाजपा विधायकों को एक वर्ष के लिए निलंबित करने के निर्णय को निरस्त करने वाले अपने फैसले में कहा है कि सदन के सदस्यों का ज्यादा वक्त एक दूसरे के खिलाफ उपहास और व्यक्तिगत हमलों में व्यतीत होता है।
सुप्रीम कोर्ट (फाइल)
– फोटो : अमर उजाला
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विस्तार
जस्टिस ए एम खानविलकर, जस्टिस दिनेश माहेश्वरी और जस्टिस सीटी रविकुमार की पीठ ने महाराष्ट्र विधानसभा द्वारा 12 भाजपा विधायकों को एक वर्ष के लिए निलंबित करने के निर्णय को निरस्त करने वाले अपने फैसले में कहा है कि सदन के सदस्यों का ज्यादा वक्त एक दूसरे के खिलाफ उपहास और व्यक्तिगत हमलों में व्यतीत होता है।
सुप्रीम कोर्ट ने 90 पन्नों के अपने फैसले में कहा है संसद व राज्य विधान सभा को पवित्र स्थान माना जाता है, ठीक उसी तरह से जैसे न्यायपालिका को न्याय का मंदिर माना जाता है। संसद व विधानसभा ही पहला ऐसा स्थल है जहां लोकतांत्रिक प्रक्रिया द्वारा आम आदमी को न्याय मिलता है। यह एक ऐसा स्थल है जहां नागरिकों को शासित करने के लिए नीतियां और कानून बनाए जाते हैं। यहां जनता से संबंधित तमाम गतिविधियों पर चर्चा की जाती है और उनकी भविष्य को आकार दिया जाता है। यह अपने आप में इस देश के नागरिकों को न्याय दिलाने की प्रक्रिया है। ये ऐसे स्थान हैं जहां मजबूत और निष्पक्ष बहस और चर्चाएं होती हैं। राष्ट्र व राज्य के सभी तरह ज्वलंत मुद्दों को हल करने और न्याय देने के लिए सत्य और सही तरीके की बहस होनी चाहिए, चाहे वह राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक मसला हो। सदन में होने वाली घटनाएं समकालीन सामाजिक ताने-बाने का प्रतिबिंब हैं।
शीर्ष अदालत ने कहा है कि समाज में वहीं व्यवहार पैटर्न प्रकट या प्रतिबिंबित होता है जो बहस के दौरान सदन के सदस्यों की विचार प्रक्रिया और कार्यों से आता है। यह सार्वजनिक है कि संसद या राज्य की विधानसभा या विधान परिषद के सदस्य अपना अधिकांश समय द्वेषपूर्ण माहौल में व्यतीत करते हैं। संसद व विधान सभा अधिक से अधिक असंवेदनशील स्थान बनते जा रहे हैं। किसी को असहमत पर भी सहमत होने का दार्शनिक सिद्धांत बहस के दौरान शायद ही कभी दिखाई देता है या यदाकदा ही दिखाई देता है।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि अमूमन यह सुनने को मिलता है कि सदन अपने सामान्य निर्धारित कार्य को पूरा नहीं कर सका। उसका अधिकतर समय एक दूसरे के खिलाफ उपहास और व्यक्तिगत हमलों में व्यतीत होता है बजाय प्रतिष्ठित संस्थान की सर्वोच्च परंपरा के अनुरूप रचनात्मक और शिक्षाप्रद बहस के। आम लोगों में ऐसी धरना बनती जा रही है। पर्यवेक्षक के रूप में ऐसा देखना दुखद है। वे गंभीरता से महसूस करते हैं कि यह समय आ गया है कि जब चुने हुए प्रतिनिधि उसके वैभव और बौद्धिक बहस के मानक को बहाल करें, जैसा उनके पूर्ववर्तियों ने किया। बहस के दौरान आक्रामकता का उस देश में कोई स्थान नहीं है जहां कानून का शासन व्याप्त है। जटिल मुद्दे को भी सौहार्दपूर्ण माहौल में एक-दूसरे के प्रति पूर्ण सम्मान दिखाते हुए हल करने की आवश्यकता है। उन्हें सदन के गुणवत्तापूर्ण समय का सदुपयोग सुनिश्चित करना चाहिए। यहीं समय की मांग है, खासकर तब जब हम सबसे पुरानी सभ्यता और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का श्रेय लेते हैं।
शीर्ष अदालत ने कहा है कि वैश्विक नेता और आत्मनिर्भर बनने के लिए सदन में बहस की गुणवत्ता का स्तर उच्चतम होना चाहिए और देश या राज्यों के आम आदमी के सामने आने वाले आंतरिक संवैधानिक और स्थानीय मुद्दों की ओर निर्देशित होनी चाहिए, जो अभी भी चौराहे पर हैं भले ही देश को स्वाधीन हुए 75 वर्ष हो क्यों न गो गए हों। सम्मानित सदन और माननीय सदस्य होने के नाते राजनीतिक कौशल दिखाएं न कि अस्थिरता। सदन में उनका लक्ष्य एक होना चाहिए ताकि देश के लोगों का कल्याण और खुशी सुनिश्चित की जा सके। किसी भी स्थिति में सदन में अव्यवस्थित आचरण के लिए कोई जगह नहीं हो सकती है। सदन में व्यवस्थित कामकाज को सुनिश्चित करने के लिए इस तरह के आचरण से सख्ती से निपटा जाना चाहिए लेकिन वह कार्रवाई संवैधानिक, कानूनी, तर्कसंगत और कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार होनी चाहिए।