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Sushmita Sen Interview: सुष्मिता सेन का कुबूलनामा: “मैं कभी अपने काम से संतुष्ट नहीं हो पाती हूं”

सुष्मिता सेन
– फोटो : अमर उजाला ब्यूरो, मुंबई

मिस यूनीवर्स का खिताब जीतने के बाद साल 1996 में सुष्मिता सेन ने फिल्म ‘दस्तक’ से बड़े परदे पर कदम रखा। सिनेमा में अदाकारी का रजत जयंती वर्ष मना रहीं सुष्मिता सेन ने अपनी पहली ही ओटीटी सीरीज ‘आर्या’ में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के सात पुरस्कार जीत लिए। वह इसे अपना पुनर्जन्म भी मानती हैं। इसी सीरीज के दूसरे सीजन की पूर्वसंध्या पर सुष्मिता ने ‘अमर उजाला’ के सलाहकार संपादक पंकज शुक्ल से लंबी बातचीत की। इस खास बातचीत में उन्होंने फिल्ममेकिंग की बदलती तकनीक, अदाकारी की अपनी अगली मंजिल और अपने इस नए अवतार पर खुलकर बातें की। और, साथ ही ये भी बताया कि मां बनना उन्हें कितना रास आ रहा है।

 

ओटीटी पर अपने डेब्यू के साथ ही आपने पुरस्कारों की लाइन लगा दी, क्या कहेंगे इसे सुष्मिता की दूसरी पारी या कुछ और..

देखिए, कहने वाले तो कुछ भी कहेंगे, मैं तो बस एक कामकाजी मां हूं। सही मायनों में मुझे लगता है कि ये मेरा पुनर्जन्म हुआ है। मैं दोबारा लौटी। लोगों ने मुझे उतनी ही शिद्दत और मोहब्बत से स्वीकार किया। सच में पिछला साल तो वाकई में कुछ और ही था। और, हमने इसकी कोई खास ऐसी योजना भी नहीं बनाई थी। हमने ईमानदारी से एक सीरीज बनाई। पहला सीजन बनाय़ा। हमने कभी नहीं सोचा था इन पुरस्कारों के बारे में क्योंकि इन  अवार्ड्स की तब स्थापना भी नहीं हुई थी।

सुष्मिता सेन
– फोटो : अमर उजाला ब्यूरो, मुंबई

अच्छा, पुरस्कारों के लिए आपका होना भी शगुन जैसा ही है। आइफा शुरू हुआ 2000 में, तब भी आपको पुरस्कार मिला और अब फिल्मफेयर ओटीटी के पहले साल में भी आपको पुरस्कार मिला..

क्या याददाश्त है आपकी, क्या बात है! बिल्कुल सही कहा आपने। आइफा के समय मेरा एक अलग करियर चल रहा था और अब ‘आर्या’ के समय में एक करियर और है। अभी फिर से ओटीटी अवार्ड्स आए। और ईश्वर का शुक्र है कि सब अच्छा हो रहा है।

 

तो ‘आर्या’ का जो ये संदेश है कि भारतीय नारी अब अपना ख्याल खुद रख सकती है, खुद लड़ सकती है इससे आप कितना मुतमईन हैं?

मैं हमेशा से ही ये मानती आई हूं कि हमारा देश औरतें ही चलाती हैं। वह सिर्फ दिखता नहीं है ऐसे। लेकिन, खेती किसानी से लेकर शहरी जिंदगी तक महिलाएं ही सबसे ज्यादा योगदान देश के विकास में कर रही हैं। तो ये मेरे लिए तो नई बात नहीं है कि वह अपना कोई साम्राज्य चला सकती है, वह तो चलाती ही रही हैं।

सुष्मिता सेन
– फोटो : अमर उजाला ब्यूरो, मुंबई

और ‘आर्या’ के हिसाब से?

‘आर्या’ जो एक गृहिणी थी और तीन बच्चों की मां थी जिसका दूर दूर तक इस कारोबारी साम्राज्य से कोई दूर दूर तक कनेक्शन नहीं था। उसे जब एक असंभव जैसी स्थिति से गुजरना होता है तो फिर वह उसे चुनती है और कहती है कि अब मुझे वही करना है जो किया जाना चाहिए। और, फिर वह अपने घर से, अपनी किचन से और बस एक मां या एक बीवी होने के एहसास से बाहर आती है और इस तरीके से उस कारोबार का अधिग्रहण करती है जो शायद उस दुनिया में सिर्फ मर्दों के लिए बनी जगह थी। मेरे हिसाब से ‘आर्या’ का किरदार बहुत ही शक्तिशाली है।

सुष्मिता सेन
– फोटो : अमर उजाला ब्यूरो, मुंबई

फिल्म की दो घंटे की अवधि में अक्सर एक अभिनेत्री को अपनी अदाकारी दिखाने का पूरा मौका नहीं मिल पाता लेकिन ओटीटी पर कहानियां के सूत्रों और धागों को सुलझाने का पूरा समय है, बतौर अभिनेत्री क्या ये दौर आपको विकसित होने का मौका दे रहा है?

बिल्कुल। डिज्नी प्लस हॉटस्टार और राम माधवानी फिल्म्स मेरे हिसाब से एक बहुत ही अच्छा गठबंधन है क्योंकि इनकी समझ और इनकी जोखिम लेने की प्रवृत्तियां बहुत ही खूबसूरती से एक जैसे धरातल पर आ चुकी हैं। बहुत सारे ओटीटी होंगे जो कहेंगे कि महिला प्रधान विषय है, मेगा बजट सीरीज है लेकिन यहां इन दोनों ने कहा कि कहानी महिला प्रधान है या पुरुष प्रधान, ये भूल जाते हैं और ये देखते हैं कि ये कहानी कितनी जबर्दस्त है और इसके लिए ऐसे ही कैनवस की जरूरत है। तो चलिए इसे उसी स्तर और भव्यता के साथ पेश करते हैं।

सुष्मिता सेन
– फोटो : अमर उजाला ब्यूरो, मुंबई

‘आर्या’ के रचयिता राम माधवानी की शूटिंग की तकनीक काफी निराली हैं, वह पूरे सेट पर तमाम कैमरे लगाकर कलाकार को मुक्त रूप से अभिनय करने के लिए छोड़ देते हैं, तो ये नई तकनीक कहीं आपके लिए चुनौती बनकर तो नहीं आई?

नहीं, ये एक चुनौती नहीं है। ये एक तोहफा है क्योंकि ऐसा माहौल पाकर आप एक्टिंग करना भूल जाते हैं। आप भूल जाते हो कि आपके सामने कैमरा भी हैं। आपको बस सीन पता होता है कि ये यहां से शुरू होता है और वहां जाकर खत्म होता है। जैसे मैं बताऊं कि आप गाड़ी में बैठकर आए, आपने घंटी बजाई। दरवाजा खुलने पर आप अंदर तक गए। ये एक ही सीन का हिस्सा है और अगर कैमरे शुरू से लेकर आखिर तक लगे हुए हैं जो आपको दिख भी नहीं रहे तो आप इसे स्वाभाविक रूप से करते दिखेंगे। तब आप अदाकारी करने की बजाय इसे जी रहे होंगे। जब कैमरा हमें दिखता है तो फिर हम कलाकारी दिखाने लगते हैं। अदाकारी छोड़कर किरदार को जीने लग जाना तो एक कलाकार के लिए उपहार ही है चुनौती तो बिल्कुल नहीं। अब मुझे आकर अगर कोई कहे कि आपका फिर से क्लोज अप, मिड शॉट लॉन्ग शाट, क्रेन, जिमी जिब करना हो तो मुझे फिर से ये सब भूलना पड़ेगा।

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