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Sunday Interview: ‘अमर उजाला’ से बोलीं आलिया भट्ट, अगर ‘इंशाअल्लाह’ बन गई होती तो शायद फिर ‘गंगूबाई’ नहीं होती

आलिया भट्ट को सिनेमा में बतौर मुख्य अभिनेत्री 10 साल पूरे हो रहे हैं। आलिया ने अपने करियर में नियमित अंतराल पर लीक से हटकर किरदार करके अपने प्रशंसकों और समीक्षकों दोनों को चौंकाया है। ‘हाइवे’, ‘उड़ता पंजाब’ ‘डियर ज़िंदगी’, ‘राज़ी’ और ‘गली ब्वॉय’ उनके अभिनय यात्रा के मील के पत्थर बन चुके हैं। धुकधुकी अब ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’ की है। एक बेहद उग्र स्वभाव के फ़िल्म निर्देशक और एक शांत, सरल और सहज सी दिखने वाली अभिनेत्री आलिया भट्ट का मिलन ही अपने आप में दिलचस्प है। निर्देशक महेश भट्ट और अभिनेत्री सोनी राजदान की बेटी आलिया भट्ट को करण जौहर ने सिनेमा में मौका दिया। लेकिन, हिंदी सिनेमा में चोटी पर वह अपनी लगातार मेहनत से पहुंची है। आलिया से उनकी अदाकारी, लहजे और किरदार के मुताबिक बोलियां सीखने की उनकी मेहनत पर ये खास बातचीत की ‘अमर उजाला’ के सलाहकार संपादक पंकज शुक्ल ने।

फिल्म गंगूबाई काठियावाड़ी एक खास बोली, एक खास बुनावट की फिल्म अपने ट्रेलर से दिखती है? अपने किरदार के लहजे को पकड़ने की आपकी तैयारी कैसी रही?
फिल्म के निर्देशक संजय लीला भंसाली के साथ शूटिंग करने का कोई तय खाका नहीं होता। वह फिल्म की बुनावट को कहीं से कहीं ले जा सकते हैं। लेकिन बोली के लिए मैंने कार्यशालाएं कीं। उच्चारण की उस्ताद भक्ति ने मेरी इसमें मदद की। गंगूबाई एक लड़की है जो काठियावाड़ से है। वह कैसे बात करेगी? हिंदी में कौन से शब्द उसके अलग होंगे? जैसे वो शक्ति नहीं सक्ती बोलती है। लेकिन फिर उसकी बंबई (अब मुंबई) की भी एक यात्रा है तो उसका असर भी उसकी बोली पर धीरे धीरे आता है।

सिनेमा में बतौर हीरोइन आप एक दशक पूरा कर रही हैं और औसतन हर दो साल में आपने एक फिल्म ऐसी दी है जिसने आपके करियर को एक नई दिशा दी। इसका श्रेय किसे देंगी, कहानियों के अपने चयन को या इनके निर्देशकों को?
हमारे काम से हमारा एक परिचय बन जाता है। जितने अलहदा किरदार कलाकार चुनता है, उतनी ही विविधता उसकी अदाकारी में दिखने लगती है। किरदारों के भी अलग अलग रंग होते हैं। किसी निर्देशक को किसी किरदार का कौन सा रंग पसंद आ जाए, पता नहीं होता। किसी एक दृश्य में किया गया अभिनय किसी निर्देशक को अपनी कहानी के किरदार के लिए कलाकार की तलाश पूरी कर देता है। और, इसमें भाग्य भी काम करता है कि मौका आए और उसे पूरा करने के लिए तारीखें भी उपलब्ध हो।

और निर्देशक?
किरदारों पर अंतिम काम तो निर्देशक ही करते हैं। कलाकार तो बस एक माध्यम है निर्देशक के नजरिये को, लेखक की सोच को परदे पर पेशकरने का। हां, चेहरा कलाकार का ही सामने होता है, उसे बस इसमें अपनी तरफ से जोड़ना है, एक तरह का लहजा, एक ऐसा स्पर्श जो लेखक और निर्देशक की सोच को जीवंत कर दे। फिल्म ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’ में मुझे एक तरह की रचनात्मक संतुष्टि भी मिली जो शायद इसके पहले कभी नहीं मिली। संजय सर ने मुझ पर इतना भरोसा किया और एक जिम्मेदारी दी तो इसका श्रेय तो उन्हीं को है।

और, संयोग को भी क्योंकि वह बनाने तो इंशाअल्लाह’ जा रहे थे और वह बंद हुई तो बनी ‘गंगूबाई काठियावाड़ी?

हां, मैं भी कभी कभी सोचती हूं कि शायद अगर ‘इंशाअल्लाह’ बन गई होती तो शायद फिर ‘गंगूबाई’ नहीं होती। खराब अनुभव भी कभी कभी आपको अच्छे अहसास दे जाता है। जीवन में कई बार बुरा भी अच्छी वजह से होता है। उस समय तो मुझे लगा कि मेरे साथ इतना अन्याय हुआ। लेकिन उन्होंने कहा कि मैंने तुम्हारे साथ फिल्म बनाने का वादा किया है। आप जाओ हफ्ते दो हफ्ते मौज करो और फिर आओ। और, फिर मैं जब आई तो उन्होंने मुझे ‘गंगूबाई’ की पटकथा पकड़ा दी। इस किरदार को देखकर पहली बार तो मैं भी डर ही गई थी कि मुझे क्यों ले रहे हैं इस किरदार के लिए।

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