फिल्म 83, सुशांत सिंह राजपूत
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करीब 200 करोड़ रुपये की लागत के साथ रिलीज हुई रणवीर सिंह और दीपिका पादुकोण स्टारर फिल्म ‘83’ को जिसने भी देखा, अधिकतर ने इसकी तारीफ ही की। गिनती के लोग होंगे ऐसे जिन्हें फिल्म पसंद नहीं आई। फिल्म समीक्षकों ने भी मुक्त कंठ से इसकी सराहना की है और इसे ऑस्कर की विदेशी भाषा फिल्म की कैटेगरी में भेजने तक की बात कही है। लेकिन ये फिल्म अपनी रिलीज के पहले पूरे हफ्ते में भी सौ करोड़ रुपये की कमाई का आंकड़ा पार नहीं कर पाई। ‘अमर उजाला’ ने इस बारे में ये जानने की कोशिश की कि आखिर फिल्म ‘83’ एक कमाल की फिल्म होने के बावजूद बॉक्स ऑफिस पर नोटों की बारिश क्यों नहीं करा पाई।
83 फिल्म
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अपने बेटे के साथ फिल्म ‘83’ देखने गए रामपुर, उत्तर प्रदेश के पत्रकार नवीन पांडे कहते हैं, ‘फिल्म अच्छी बनाई गई पर इसे बनाने वाले छोटे शहरों ब कस्बों में अपना प्रचार ठीक प्रकार से नहीं कर पाए। खासकर हिन्दी पट्टी में। विश्व कप विजेताओं को प्रमोशन में भी लगाया जा सकता था। हां, कई बार होता है कि फ़िल्म अच्छी बनती है पर उतनी भीड़ नहीं जुट पाती जितनी जुटनी चाहिए।’ वहीं पटना निवासी आलोक नंदन का मानना है कि फिल्म के टाइटल में क्रिकेट न होना इसके बॉक्स ऑफिस कलेक्शन की विफलता का बड़ा कारण है। जो लोग 1983 की विश्वकप विजय से अवगत हैं वही समझ पाएंगे कि फिल्म क्या है और क्या दिखाया जा रहा है। नवीन की तरह आलोक भी मानते हैं कि फिल्म के प्रमोशन को लेकर कहीं ना कहीं रणनीतिक चूक हुई है।
फिल्म 83 में 1983 वर्ल्डकप से जुड़ी कई कहानियां बताई गई हैं
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हालांकि वरिष्ठ पत्रकार तहसीन मुनव्वर कहते हैं कि वह मौजूदा कोरोना संक्रमण काल में बाहर निकलकर सिनेमाघर जाना नहीं चाहते। वह फिल्म के ओटीटी पर आने का इंतजार करेंगे। तहसीन कहते हैं, ‘अगर सभी नागरिक कोविड प्रोटोकॉल का पालन कर रहे होते तो मैं भी सिनेमा हॉल जाकर ये फिल्म देखता लेकिन संक्रमण काल खत्म होने तक मैं सिनेमाघर जाने वाला नहीं।’ वहीं बदलापुर में रहने वाली पत्रकार रजनी गुप्ता के मुताबिक, ‘हिंदी फिल्म जगत की मार्केटिंग टीम बड़े बड़े संस्थानों से पढ़कर भले आई हो लेकिन भारतीय जनमानस के विचारों और उसकी सोच से वह कोसों दूर है। दांत चियारकर मार्केटिंग नहीं होती बल्कि भावनात्मक रूप से भी जुड़ना होता है लोगों से। काश, यह बात मार्केटिंग और पी आर से जुड़े लोगों के आका उन्हें बताते तो बेहतर होता।’
83 द फिल्म
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मुंबई के योगेश परीक ने फिल्म ‘83’ को बॉक्स ऑफिस पर अपेक्षित सफलता न मिलने का तीन बिंदुओं में विश्लेषण किया। वह कहते हैं, ‘ये फिल्म 83 के नॉस्टेलिजिया वाली पीढ़ी ने देखी पर शायद अब के मिलेनियल्स जिन्होंने 2007 और 2011 की जीत देख ली है उन्हें 83 की जीत से कनेक्शन नही हो पाया। दूसरी बात ये कि कपिल देव, गावस्कर, शास्त्री और श्रीकांत के अलावा आज की पीढ़ी 83 की विजेता टीम के किसी खिलाड़ी को शायद ही जानती हो। और, तीसरी बात यह भी कि यदि खिलाड़ियों की थोड़ी बैक स्टोरी होती तो फ़िल्म लोगों को इमोशनली ज्यादा कनेक्ट कर पाती। फिल्म ‘83’ एक अच्छी डॉक्यूड्रामा बन के रह गई।’
फिल्म 83
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उपन्यास व पटकथा लेखक महेंद्र जाखड़ के मुताबिक फिल्म ‘83’ में मैचों पर ही ज्यादा ध्यान रहा और खिलाड़ियों के संघर्ष और उनकी निजी कहानियों को फिल्म में समय नहीं दिया गया। इसकी अगर ‘धोनी’ या ‘लगान’ से तुलना करें तो वहां हर किरदार की एक निजी कहानी थी। एक दर्शक के तौर पर लोग ये जानना चाहते थे कि परदे के पीछे क्या हुआ। मैचों में किसे दिलचस्पी होगी भला, उनके अंत के बारे में तो सबको पता ही था। पटकथा लेखक गुंजन सक्सेना भी कहते हैं कि हर खिलाड़ी के दो तीन संस्मरण उठाकर उन पर स्क्रीनप्ले लिख देने से काम नहीं चलेगा। वह मानते हैं कि फिल्म ‘83’ के लेखन में किए गए आलस का फिल्म को नुकसान उठाना पड़ा। गुंजन के मुताबिक फिल्म में न तो नाटकीयता दिखी और न ही ये दर्शकों को बांधने में सफल हो सकी।