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India’s Sons: बलात्कार के झूठे मामलों में फंसे पुरुषों की झकझोर देने वाली कहानी, दीपिका की डॉक्यूमेंट्री में निशाने पर कानून

दिल्ली के दो फिल्मकारों की बनाई डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘राइटिंग विद फायर’ के इस साल ऑस्कर नॉमीनेशन तक पहुंच जाने के बाद एक बार फिर से उन तमाम विषयों पर बनी डॉक्यूमेंट्री की तरफ लोगों का ध्यान जा रहा है, जिन पर फिल्में बनाने से आमतौर मुंबइया फिल्ममेकर कतराते हैं। धर्मा प्रोडक्शंस की बनाई डॉक्यूमेंट्री ‘सर्चिंग फॉर शीला’ को तो नामांकन लिस्ट तक में शामिल होने का नहीं मिला। वहीं, डिज्नी प्लस हॉटस्टार पर प्रसारित हुई राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार विजेता विनोद कापड़ी की डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘1232 किमी’ के ऑस्कर नामांकन के लिए न भेजे जाने से इस फिल्म को देखने वाले क्षुब्ध हैं। इस बीच दिल्ली की ही एक फिल्ममेकर दीपिका नारायण भारद्वाज की डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘इंडियाज सन्स’ की चर्चा शुरू हो गई है। इस फिल्म को देखने के बाद लगता है कि अगर इसे सही ढंग से रिलीज किया गया और इसे ज्यादा से ज्यादा दर्शकों तक पहुंचने के लिए सही प्लेटफॉर्म मिला तो ये अगले साल भारत की तरफ से ऑस्कर की डॉक्यूमेंट्री कैटेगरी में पहुंचने की दावेदार हो सकती है।

डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘इंडियाज सन्स’ की एक प्राइवेट स्क्रीनिंग दिल्ली में हो चुकी है और जल्द ही इसकी एक प्राइवेट स्क्रीनिंग मुंबई में भी होली के बाद प्रस्तावित बताई जाती है। इस फिल्म को दीपिका नारायण भारद्वाज ने उसी तेवर के साथ बनाया है जिस तेवर के साथ उन्होंने दहेज उत्पीड़न कानून की धारा 498 ए के दुरुपयोग पर अपनी पिछली फिल्म ‘मारटियर्स ऑफ मैरिज’ बनाई थी। नेटफ्लिक्स पर रिलीज हो चुकी इस फिल्म में दीपिका ने उन लोगों का पर्दाफाश किया था जो इस कानून को हथियार बनाकर संगठित तरीकों से पुरुषों का शोषण करते रहे हैं। दीपिका की मानें तो ऐसा ही कुछ इन दिनों देश में बलात्कार के कानून को लेकर हो रहा है।

 

‘अमर उजाला’ से बात करते हुए दीपिका कहती हैं, ’महिला सशक्तीकरण के नाम पर इन दिनों पुरुषों को निशाना बनाना फैशन हो गया है। कोई भी महिला अब किसी भी पुरुष का बदले की भावना से या किसी षडयंत्र के तहत नाम लेकर उसका करियर, उसकी जिंदगी और उसका पारिवारिक जीवन दो मिनट में तबाह कर सकती है क्योंकि उसे अब सबूत देने की कोई जरूरत नहीं है। दिल्ली के ‘निर्भया कांड’ के बाद बलात्कार और स्त्री उत्पीड़न को लेकर बने कानून के बाद अब किसी महिला का सिर्फ ये कहना देना भर काफी है कि उसका शोषण किया गया है।’ तो इस डॉक्यूमेंट्री का ट्रिगर प्वाइंट क्या रहा, ये पूछने पर दीपिका तमाम ऐसे किस्से बताती हैं जिसमें एक गलत आरोप के चलते किसी का जीवन बर्बाद हो गया, किसी ने आत्महत्या कर ली या किसी पर हमेशा के लिए बलात्कारी होने का ठप्पा लग गया और ये इसके बावजूद कि अदालत में मामला टिक ही नहीं सका।

जस्टिस निवेदिता अनिल शर्मा ने भी साल 2016 में एक मामले में कहा, ‘समय आ गया है कि ऐसे पुरुषों की मान मर्यादा को बहाल करने के भी कानून बने जिन्हें बलात्कार के झूठे केसों में फंसाया गया क्योंकि लग तो ऐसा ही रहा है कि सारे लोग बस महिलाओं के सम्मान की रक्षा में लगे हुए हैं।’ दीपिका की डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘इंडियाज सन्स’ इसी बात को आगे बढ़ाती है। ये फिल्म बताती है कि कैसे निर्भया मामले के बाद बदले गए कानून के बाद के दिनों में बलात्कार के मामलों के दर्ज होने में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई। लेकिन, साथ ही ये भी हुआ कि ऐसे अधिकतर मामलों में आरोपियों पर गुनाह साबित ही नहीं हो पाया। दीपिका कहती हैं, ‘ऐसे तमाम मामले सिर्फ बदला लेने के लिए दायर किए गए और निर्भया कांड के बाद बदले गए कानून का दुरुपयोग करते हुए दर्ज कराए गए।’

एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर का पेशा छोड़ पत्रकारिता में आईं दीपिका लैंगिक भेदभाव के मामलों में पुरुषों के पक्ष में शुरू से आवाज उठाती रही हैं। उनका मानना है कि भारतीय कानूनों में पुरुषों के सम्मान के लिए कभी किसी ने आवाज नहीं उठाई। वह इस बारे में टेडएक्स से लेकर तमाम दूसरे मंचों पर इस बात की वकालत करती रही हैं कि कानून को लैंगिक भेदभाव से ऊपर उठकर एक तटस्थ नजरिये से समाज की संरक्षा करनी चाहिए। ब्रिटेन के थॉमस फाउंडेशन की तरफ से दुनिया भर से चुने गए ‘फ्यूचर मीडिया लीडर्स कोर्स’ में शामिल हो चुकीं दीपिका ‘गरिमा’, ‘यूथ काउंट’ और ‘ग्रामीण डाकसेवक’ विषयों पर भी डॉक्यूमेंट्री फिल्में बना चुकी हैं।

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