सार
वाइस एयर मार्शल (पूर्व) एनबी सिंह कहते हैं कि तालिबान कुछ तो बदला है। वह कतर में होने वाली बैठक से लेकर काबुल, कंधार तक पहले की तुलना में समझदारी दिखा रहे हैं। उन पर भारी अंतरराष्ट्रीय दबाव है। रूस, चीन जैसे देश भी नहीं चाहेंगे कि तालिबान पुरानी रूपरेखा में बना रहे। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी भी उसकी पुरानी रूपरेखा का समर्थन नहीं करेंगे…
विदेश मंत्री एस जयशंकर
– फोटो : Amar Ujala (File Photo)
किसी भी देश की कूटनीति कभी नहीं सोती। यही स्थिति इस समय अफगानिस्तान को लेकर भारत की चिंता और तैयारी की है। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने भले ही आतंकवाद मुक्त अफगानिस्तान की चाहत बताई हो, लेकिन वहां रास्ता बनाने में लगे विदेश सेवा के अधिकारी जेपी सिंह समेत तमाम लोग अभी कुछ कह पाने की स्थिति में नहीं हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल, विदेश मंत्री एस जयशंकर और विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला की टीम भारत की चिंताओं को दूर करने में लगी है।
विदेश मामलों के जानकार एसके शर्मा कहते हैं कि तालिबान अफगानिस्तान में सरकार बनाने की प्रक्रिया में है। देखना है कि इसे लेकर उसके सर्वोच्च नेता हिबैतुल्लाह अखुंदजादा का पहला संदेश क्या आता है? वह सार्वजनिक तौर पर लोगों को संबोधित करेंगे या फिर संदेश प्रसारित होगा। इसके अलावा अफगानिस्तान में तालिबान के सरकार गठन की रुपरेखा किस तरह की होती है। शर्मा कहते हैं कि इस पर अमेरिका समेत दुनिया के सभी देशों की निगाह टिकी है।
क्या अफगानिस्तान अपनी जमीन का इस्तेमाल आतंकवाद के लिए नहीं होने देगा?
विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची द्वारा भारत की चाहत बताने के सवाल पर शर्मा ने कहा कि यह तो सभी चाहते हैं, लेकिन आगे क्या होगा? यह तस्वीर साफ नहीं है। तालिबान के लोगों के हाथ में बंदूक है। वह हिंसा, बर्बरता के रास्ते से सत्ता में आ रहे हैं। तालिबान का संबंध पाकिस्तान, वहां की खुफिया एजेंसी आईएसआई, पाकिस्तान की जमीन से चलने वाले आतंकी संगठनों, अल-कायदा, हक्कानी नेटवर्क समेत अन्य से है। इसलिए एक झटके में सबकुछ ठीक होने वाला नहीं है। फिर पाकिस्तान की जमीन से तो आज तक आतंकी संगठनों का संचालन बंद नहीं हुआ? लेकिन उम्मीद रखनी चाहिए।
वाइस एयर मार्शल (पूर्व) एनबी सिंह कहते हैं कि तालिबान कुछ तो बदला है। वह कतर में होने वाली बैठक से लेकर काबुल, कंधार तक पहले की तुलना में समझदारी दिखा रहे हैं। उन पर भारी अंतरराष्ट्रीय दबाव है। रूस, चीन जैसे देश भी नहीं चाहेंगे कि तालिबान पुरानी रूपरेखा में बना रहे। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी भी उसकी पुरानी रूपरेखा का समर्थन नहीं करेंगे। भारत को कदापि मंजूर नहीं होगा। जबकि अफगानिस्तान में स्थितियों को सामान्य स्तर पर लाने के लिए तालिबान के नेताओं को इन सभी देशों के सहयोग की आवश्यकता पड़ेगी। इसलिए उन्हें काफी कुछ बदलना पड़ेगा। उनके रणनीतिकारों को पता है कि केवल एक कट्टर इस्लामिक स्टेट और आतंकवाद के रास्ते से आगे का रास्ता मुश्किल है। एयर मार्शल कहते हैं कि उनके विदेश में पढ़े लिखे और समझदार रणनीतिकार इसे समझ भी रहे हैं।
क्या भारत तालिबान के नेताओं के संपर्क में है?
कतर में भारतीय राजनयिक दीपक मित्तल और तालिबान के प्रतिनिधि शेर मोहम्मद अब्बास स्तानिकजई की मुलाकात के बाद इसमें कोई संदेह नहीं रह गया है। हालांकि विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने इसके बहुत निहितार्थ न निकालने की सलाह दी है और इसे एक बैठकभर बताया है, लेकिन कूटनीति के जानकारों का कहना है कि बात इतनी भर भी नहीं है। स्तानिकजई को भारत ने अपनी चिंताएं बताई हैं और इसमें तालिबान का सहयोग मांगा है। इसी तरह से तालिबान के प्रतिनिधि ने भी कुछ अपनी बात रखी है। भारत ने पहले भी कहा है कि वह अपने हितों की रक्षा के लिए संवेदनशील है और अफगानिस्तान पर करीब से नजर बनाए है। कूटनीति की भाषा में इसका अर्थ कुछ स्टेक होल्डर्स के साथ संपर्क बनाने से होता है। ताकि जरूरत पड़ने पर राष्ट्रीय हितों की रक्षा की जा सके।
विस्तार
किसी भी देश की कूटनीति कभी नहीं सोती। यही स्थिति इस समय अफगानिस्तान को लेकर भारत की चिंता और तैयारी की है। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने भले ही आतंकवाद मुक्त अफगानिस्तान की चाहत बताई हो, लेकिन वहां रास्ता बनाने में लगे विदेश सेवा के अधिकारी जेपी सिंह समेत तमाम लोग अभी कुछ कह पाने की स्थिति में नहीं हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल, विदेश मंत्री एस जयशंकर और विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला की टीम भारत की चिंताओं को दूर करने में लगी है।
विदेश मामलों के जानकार एसके शर्मा कहते हैं कि तालिबान अफगानिस्तान में सरकार बनाने की प्रक्रिया में है। देखना है कि इसे लेकर उसके सर्वोच्च नेता हिबैतुल्लाह अखुंदजादा का पहला संदेश क्या आता है? वह सार्वजनिक तौर पर लोगों को संबोधित करेंगे या फिर संदेश प्रसारित होगा। इसके अलावा अफगानिस्तान में तालिबान के सरकार गठन की रुपरेखा किस तरह की होती है। शर्मा कहते हैं कि इस पर अमेरिका समेत दुनिया के सभी देशों की निगाह टिकी है।
क्या अफगानिस्तान अपनी जमीन का इस्तेमाल आतंकवाद के लिए नहीं होने देगा?
विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची द्वारा भारत की चाहत बताने के सवाल पर शर्मा ने कहा कि यह तो सभी चाहते हैं, लेकिन आगे क्या होगा? यह तस्वीर साफ नहीं है। तालिबान के लोगों के हाथ में बंदूक है। वह हिंसा, बर्बरता के रास्ते से सत्ता में आ रहे हैं। तालिबान का संबंध पाकिस्तान, वहां की खुफिया एजेंसी आईएसआई, पाकिस्तान की जमीन से चलने वाले आतंकी संगठनों, अल-कायदा, हक्कानी नेटवर्क समेत अन्य से है। इसलिए एक झटके में सबकुछ ठीक होने वाला नहीं है। फिर पाकिस्तान की जमीन से तो आज तक आतंकी संगठनों का संचालन बंद नहीं हुआ? लेकिन उम्मीद रखनी चाहिए।
वाइस एयर मार्शल (पूर्व) एनबी सिंह कहते हैं कि तालिबान कुछ तो बदला है। वह कतर में होने वाली बैठक से लेकर काबुल, कंधार तक पहले की तुलना में समझदारी दिखा रहे हैं। उन पर भारी अंतरराष्ट्रीय दबाव है। रूस, चीन जैसे देश भी नहीं चाहेंगे कि तालिबान पुरानी रूपरेखा में बना रहे। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी भी उसकी पुरानी रूपरेखा का समर्थन नहीं करेंगे। भारत को कदापि मंजूर नहीं होगा। जबकि अफगानिस्तान में स्थितियों को सामान्य स्तर पर लाने के लिए तालिबान के नेताओं को इन सभी देशों के सहयोग की आवश्यकता पड़ेगी। इसलिए उन्हें काफी कुछ बदलना पड़ेगा। उनके रणनीतिकारों को पता है कि केवल एक कट्टर इस्लामिक स्टेट और आतंकवाद के रास्ते से आगे का रास्ता मुश्किल है। एयर मार्शल कहते हैं कि उनके विदेश में पढ़े लिखे और समझदार रणनीतिकार इसे समझ भी रहे हैं।
क्या भारत तालिबान के नेताओं के संपर्क में है?
कतर में भारतीय राजनयिक दीपक मित्तल और तालिबान के प्रतिनिधि शेर मोहम्मद अब्बास स्तानिकजई की मुलाकात के बाद इसमें कोई संदेह नहीं रह गया है। हालांकि विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने इसके बहुत निहितार्थ न निकालने की सलाह दी है और इसे एक बैठकभर बताया है, लेकिन कूटनीति के जानकारों का कहना है कि बात इतनी भर भी नहीं है। स्तानिकजई को भारत ने अपनी चिंताएं बताई हैं और इसमें तालिबान का सहयोग मांगा है। इसी तरह से तालिबान के प्रतिनिधि ने भी कुछ अपनी बात रखी है। भारत ने पहले भी कहा है कि वह अपने हितों की रक्षा के लिए संवेदनशील है और अफगानिस्तान पर करीब से नजर बनाए है। कूटनीति की भाषा में इसका अर्थ कुछ स्टेक होल्डर्स के साथ संपर्क बनाने से होता है। ताकि जरूरत पड़ने पर राष्ट्रीय हितों की रक्षा की जा सके।
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