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डॉक्टरों का दावा: 'ओमिक्रॉन को फैलने दें, सभी लोगों में विकसित हो जाएगी इम्युनिटी', रिसर्चर्स क्यों दे रहे ऐसे तर्क, क्या है सच्चाई, जानें

वर्ल्ड डेस्क, अमर उजाला, लॉस एंजेलिस
Published by: कीर्तिवर्धन मिश्र
Updated Thu, 30 Dec 2021 01:32 PM IST

सार

Omicron Variant: डॉक्टरों की तरफ से दावा किया जा रहा है कि ओमिक्रॉन काफी कम घातक है। इसलिए सरकारों को इसे लॉकडाउन और कर्फ्यू लगाकर रोकने के बजाय पूरी आबादी में फैलने देना चाहिए। जिन चिकित्सकों की तरफ से यह बात कही गई है, उनमें एक बड़ा नाम अमेरिकी डॉक्टर एफशाइन इमरानी का है, जो कि कैलिफोर्निया के जाने-माने चिकित्सक हैं।

अमेरिका के जाने-माने डॉक्टर अफशाइन इमरानी (बाएं) समेत कुछ अन्य वैज्ञानिक कर चुके हैं ओमिक्रॉन के खतरनाक न होने के दावे।
– फोटो : Amar Ujala

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विस्तार

दुनियाभर में कोरोनावायरस के ओमिक्रॉन वैरिएंट ने कहर मचाया है। हालिया स्टडीज में कहा गया है कि ओमिक्रॉन स्वरूप लोगों में तेजी से फैल रहा है, जिससे नए संक्रमितों का आंकड़ा तेजी से बढ़ता जा रहा है। हालांकि, इससे होने वाली मौतों को लेकर वैज्ञानिकों ने कोई बड़ा दावा नहीं किया है। दक्षिण अफ्रीका और ब्रिटेन के डेटा को भी देखा जाए तो सामने आता है कि ओमिक्रॉन से संक्रमित मरीजों के अस्पताल में भर्ती होने (हॉस्पिटलाइजेशन) या उनकी मौत होने के मामले काफी कम हैं। इसके बावजूद रिसर्चर्स अभी पूरी दुनिया से अपील कर रहे हैं कि उन्हें इसके असर को देखने के लिए रुकना चाहिए और पूरे एहतियात बरतने चाहिए। 

हालांकि, इस बीच कई डॉक्टरों की तरफ से दावा किया जा रहा है कि ओमिक्रॉन काफी कम घातक है। इसलिए सरकारों को इसे लॉकडाउन और कर्फ्यू लगाकर रोकने के बजाय पूरी आबादी में फैलने देना चाहिए। जिन चिकित्सकों की तरफ से यह बात कही गई है, उनमें एक बड़ा नाम अमेरिकी डॉक्टर एफशाइन इमरानी का है, जो कि कैलिफोर्निया स्थित लॉस एंजेलिस के जाने-माने हार्ट स्पेशलिस्ट हैं और कोरोना महामारी के दौरान उन्होंने सैकड़ों कोरोना मरीजों को संभालने में मदद की। 

क्या हैं डॉक्टरों के तर्क?

  • डॉक्टर इमरानी समेत कई अन्य रिसर्चरों का कहना है कि ओमिक्रॉन वैरिएंट डेल्टा स्वरूप के मुकाबले काफी कम घातक है। इसके कम घातक होने की वजह से न तो लोग गंभीर रूप से बीमार होंगे और न ही उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ेगा। 
  • ब्रिटेन और दक्षिण अफ्रीका के स्वास्थ्य विभाग की स्टडीज में भी कहा गया है कि ओमिक्रॉन से संक्रमित लोगों को बाकी वैरिएंट्स के मुकाबले 70 फीसदी तक कम अस्पताल आने की जरूरत पड़ रही है। 
  • इतना ही नहीं ओमिक्रॉन से लोगों की मौत होने की संभावना भी काफी कम हैं। साथ ही उनमें कोरोना के खिलाफ इम्युनिटी भी विकसित हो जाएगी, जो लंबे समय तक साथ रहेगी और यहीं से कोरोना महामारी का अंत शुरू हो जाएगा। 

क्या हैं वैज्ञानिकों के ऐसा कहने के पीछे के तर्क?

चूंकि ओमिक्रॉन वैरिएंट डेल्टा के मुकाबले हवा में 70 गुना तेजी से बढ़ता है, इसलिए इसकी प्रसार गति काफी तेज है। लेकिन यह लोगों को डेल्टा वैरिएंट की तरह बीमार क्यों नहीं कर रहा, इसके पीछे अब तक जो रिसर्च सामने आई हैं, उनमें पाया गया कि ओमिक्रॉन वैरिएंट ब्रॉन्कस (Bronchus) यानी फेफड़ों और श्वास नली को जोड़ने वाली नली में खुद को तेजी से बढ़ाता है। जबकि फेफड़ों पर इसका ज्यादा असर नहीं पड़ता। 

डॉक्टरों का दावा है कि ओमिक्रॉन फेफड़ों में पहुंचकर डेल्टा के मुकाबले काफी धीमी रफ्तार से संक्रमण फैलाता है। इसलिए ओमिक्रॉन संक्रमितों को ऑक्सीजन सपोर्ट की जरूरत नहीं पड़ रही। इसके अलावा हमारी श्वासनली में भी एक म्यूकोसल इम्यून सिस्टम होता है, जो कि प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने का केंद्र होता है। तो जैसे ही ओमिक्रॉन यहां फैलना शुरू होता है, यह केंद्र अपने आप सक्रिय हो जाता है और इससे निकलने वाली एंटीबॉडी ओमिक्रॉन को खत्म कर देती हैं। यानी ओमिक्रॉन शरीर में ही गंभीर बीमारी के तौर पर नहीं पनप पाता। इसलिए ओमिक्रॉन एक वरदान के जैसा है। 

डॉक्टर इमरानी का तर्क है कि यह नहीं कहा जा सकता कि ओमिक्रॉन से मौतें नहीं होंगी, पहले से किसी बीमारी से पीड़ित लोग तो प्रभावित हो सकते हैं, लेकिन स्वस्थ लोगों को खास दिक्कत नहीं आएगी। इसी तरह ओमिक्रॉन एक नेचुरल वैक्सीन बन जाएगा और महामारी का खात्मा तय है। 

क्या इन दावों पर किया जा सकता है पूरा भरोसा?

गौरतलब है कि कोरोना की पहली लहर के दौरान कोरोना के डर को खत्म करने से जुड़े कई दावे किए गए थे। इनमें डॉक्टर इमरानी समेत दुनियाभर के कई और वैज्ञानिकों के दावे भी शामिल थे। तब कहा गया था कि लॉकडाउन का कोरोना के मामले और मौतों को रोकने कोई खास फायदा नहीं होता और स्वीडन का लॉकडाउन न लगाने का फैसला बिल्कुल सही था। डॉक्टर इमरानी ने युवाओं और स्वस्थ लोगों को वैक्सीन न लगाने की वकालत भी की थी। 

हालांकि, उनके ये दावे बाद में गलत साबित हो गए। इसका सबसे बड़ा उदाहरण खुद यूरोप के देश स्वीडन में देखने को मिला, जहां सरकार ने लॉकडाउन लगाने से साफ इनकार कर दिया और छूटों को जारी रखा। इसका असर यह हुआ कि स्वीडन अपने पड़ोसी देशों (नॉर्वे, फिनलैंड और डेनमार्क) के मुकाबले कोरोना से सबसे ज्यादा जूझा। जहां नॉर्वे में (केसेज पर मिलियन) यानी 10 लाख लोगों में 2699 ही संक्रमित हुए, वहीं स्वीडन में 10 लाख में 10 हजार लोग संक्रमित मिले। यानी नॉर्वे के मुकाबले करीब चार गुना। उधर नॉर्वे में प्रति 10 लाख लोगों में 50 लोगों की मौत कोरोना से दर्ज की गई, जबकि स्वीडन में यह आंकड़ा 575 रहा। यानी अपने पड़ोसी के मुकाबले करीब 10 गुना। 

उधर वो दावे भी गलत साबित हुए, जिनमें उन्होंने कहा था कि स्वस्थ और युवाओं को वैक्सीन की जरूरत नहीं पड़ेगी। डेल्टा के फैलने के दौरान यह पाया गया था कि इस वैरिएंट से पहले से बीमार लोगों के साथ-साथ स्वस्थ लोग भी गंभीर रूप से बीमार हो रहे थे। साथ ही बच्चों को भी बड़ी संख्या में संक्रमित पाया जाने लगा। यानी बिना वैक्सीन के युवाओं और स्वस्थ लोगों पर खतरा लगातार बढ़ता रहा। 

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