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जनादेश 2022: हर दांव रहा नाकाम…चुनाव में गठबंधन काम आया न नाम

सार

यूपी के नतीजाें ने कई दलों की प्रासंगिकता पर ग्रहण लगाया। वहीं बड़ी जीत ने ब्रांड मोदी के बाद ब्रांड योगी पर मुहर लगाई। इसके साथ ही नए और बेहतर विकल्प के बिना बदलाव नहीं करने का मतदाताओं ने साफ सियासी संदेश दिया।

अखिलेश यादव, जयंत चौधरी, मायावती, ओम प्रकाश राजभर और स्वामी प्रसाद मौर्य।
– फोटो : अमर उजाला

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पिछले तीन चुनावों (2017, 19 और 22) में तीन नए गठबंधन के साथ मैदान में उतरी सपा का हर दांव बेकार गया। पार्टी भाजपा के दांव से ही उसे चित करना चाहती थी। हालांकि भगवा खेमे की लगातार चौथी प्रचंड जीत को रोकना तो दूर सपा मजबूत चुनौती भी पेश नहीं कर पाई। उत्तर प्रदेश में भाजपा की एक और बड़ी जीत ने ब्रांड मोदी के बाद ब्रांड योगी पर मुहर लगा दी है।

विधानसभा चुनाव के नतीजे समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस तीनों के लिए खतरे की घंटी है। खासतौर से सपा के लिए, जिसके बीते दस सालों में हर नई कोशिश नाकाम साबित हुई है। यही स्थिति बसपा के लिए भी है, जिसने इस चुनाव में पहली बार अपने समर्पित मतदाता वर्ग को खो दिया है। कांग्रेस भी पंजाब में अपनी सत्ता गंवाने के बाद देश के सबसे अहम सूबे में महज दो सीटों पर सिमट कर रह गई।

सपा की हर कोशिश बेकार : गठबंधन के सहारे भाजपा को पटखनी देने की समाजवादी पार्टी की लगातार तीसरी कोशिश में भी औंधे मुंह गिरी है। बीते विधानसभा चुनाव में पार्टी ‘यूपी के लड़के’ के नारे के साथ कांग्रेस से गलबहियां की थीं। इसके बाद साल 2019 के चुनाव में ढाई दशक पुरानी रंजिश भुलाकर बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन कर भाजपा से मुकाबला किया था। इस बार पार्टी ने राष्ट्रीय लोक दल के सहारे पश्चिमी यूपी में मतदाताओं को साधने और सुभासपा सहित कई छोटे दलों को साध कर गैर यादव ओबीसी को साथ लाकर भाजपा को पछाड़ने का दांव चला था।

बसपा भी हुई अप्रासंगिक : नब्बे के दशक के बाद यह पहला चुनाव है जब बसपा के सीटों की संख्या दहाई अंक तक भी नहीं पहुंच पाई। यह उस दल की स्थिति है जिसकी मुखिया मायावती राज्य में चार बार मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। नतीजे ने साफ कर दिया है कि कभी राज्य की मुख्य ताकत रही बसपा करीब-करीब अप्रासंगिक हो गई है।

भाजपा के साथ रहे छोटे दल ही बचे : चुनाव नतीजे ने राज्य के छोटे दलों की प्रासंगिकता पर भी ग्रहण लगा दिया है। सपा को पश्चिम में रालोद से पूरब में सुभासपा, अपना दल कमेरावादी सहित छोटे-छोटे जातीय समूहों से बड़ी उम्मीदें थीं। लेकिन, नतीजे ने साफ कर दिया कि राज्य में वही छोटे दल प्रासंगिक रह गए, जो भाजपा के साथ रहे। खासतौर से रालोद मुखिया जयंत चौधरी पश्चिम में किसानों की नाराजगी और अपने पिता अजित सिंह की मौत से उपजी सहानुभूति को भी नहीं भुना सके।

गैरयादव ओबीसी वोटर भगवा के साथ रहे : चुनाव के दौरान ओबीसी नेताओं की थोक में विदाई के बाद भाजपा असमंजस में थी। पार्टी को गैरयादव ओबीसी वोट बैंक में सेंध लगने का डर सता रहा था। खासतौर से स्वामी प्रसाद मौर्य, धर्मसिंह सैनी सहित कई कद्दावर नेताओं के साथ छोड़ देने से भाजपा खेमे में भगदड़ जैसी स्थिति थी। हालांकि चुनाव के नतीजाें ने बता दिया है कि भाजपा से ओबीसी नेता जरूर भागे, इसी वर्ग के नेताओं ने नाराजगी भी जताई, मगर गैरयादव ओबीसी बिरादरी भगवा खेमे के साथ ही रही।

अब आगे क्या : विधानसभा चुनाव के नतीजाें ने देश के सबसे अहम प्रदेश के मतदाताओं का संदेश साफ कर दिया है। संदेश यह है कि राज्य में अब उन दलों की राह आसान नहीं है जो पहले भी सत्ता में रहे हैं। मतदाताओं ने बतला दिया है कि राज्य में तब तक कोई बदलाव नहीं होगा जब तक कि उसके सामने पंजाब की तरह कोई नया और ठोस राजनीतिक विकल्प नहीं आ जाए।

विस्तार

पिछले तीन चुनावों (2017, 19 और 22) में तीन नए गठबंधन के साथ मैदान में उतरी सपा का हर दांव बेकार गया। पार्टी भाजपा के दांव से ही उसे चित करना चाहती थी। हालांकि भगवा खेमे की लगातार चौथी प्रचंड जीत को रोकना तो दूर सपा मजबूत चुनौती भी पेश नहीं कर पाई। उत्तर प्रदेश में भाजपा की एक और बड़ी जीत ने ब्रांड मोदी के बाद ब्रांड योगी पर मुहर लगा दी है।

विधानसभा चुनाव के नतीजे समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस तीनों के लिए खतरे की घंटी है। खासतौर से सपा के लिए, जिसके बीते दस सालों में हर नई कोशिश नाकाम साबित हुई है। यही स्थिति बसपा के लिए भी है, जिसने इस चुनाव में पहली बार अपने समर्पित मतदाता वर्ग को खो दिया है। कांग्रेस भी पंजाब में अपनी सत्ता गंवाने के बाद देश के सबसे अहम सूबे में महज दो सीटों पर सिमट कर रह गई।

सपा की हर कोशिश बेकार : गठबंधन के सहारे भाजपा को पटखनी देने की समाजवादी पार्टी की लगातार तीसरी कोशिश में भी औंधे मुंह गिरी है। बीते विधानसभा चुनाव में पार्टी ‘यूपी के लड़के’ के नारे के साथ कांग्रेस से गलबहियां की थीं। इसके बाद साल 2019 के चुनाव में ढाई दशक पुरानी रंजिश भुलाकर बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन कर भाजपा से मुकाबला किया था। इस बार पार्टी ने राष्ट्रीय लोक दल के सहारे पश्चिमी यूपी में मतदाताओं को साधने और सुभासपा सहित कई छोटे दलों को साध कर गैर यादव ओबीसी को साथ लाकर भाजपा को पछाड़ने का दांव चला था।

बसपा भी हुई अप्रासंगिक : नब्बे के दशक के बाद यह पहला चुनाव है जब बसपा के सीटों की संख्या दहाई अंक तक भी नहीं पहुंच पाई। यह उस दल की स्थिति है जिसकी मुखिया मायावती राज्य में चार बार मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। नतीजे ने साफ कर दिया है कि कभी राज्य की मुख्य ताकत रही बसपा करीब-करीब अप्रासंगिक हो गई है।

भाजपा के साथ रहे छोटे दल ही बचे : चुनाव नतीजे ने राज्य के छोटे दलों की प्रासंगिकता पर भी ग्रहण लगा दिया है। सपा को पश्चिम में रालोद से पूरब में सुभासपा, अपना दल कमेरावादी सहित छोटे-छोटे जातीय समूहों से बड़ी उम्मीदें थीं। लेकिन, नतीजे ने साफ कर दिया कि राज्य में वही छोटे दल प्रासंगिक रह गए, जो भाजपा के साथ रहे। खासतौर से रालोद मुखिया जयंत चौधरी पश्चिम में किसानों की नाराजगी और अपने पिता अजित सिंह की मौत से उपजी सहानुभूति को भी नहीं भुना सके।

गैरयादव ओबीसी वोटर भगवा के साथ रहे : चुनाव के दौरान ओबीसी नेताओं की थोक में विदाई के बाद भाजपा असमंजस में थी। पार्टी को गैरयादव ओबीसी वोट बैंक में सेंध लगने का डर सता रहा था। खासतौर से स्वामी प्रसाद मौर्य, धर्मसिंह सैनी सहित कई कद्दावर नेताओं के साथ छोड़ देने से भाजपा खेमे में भगदड़ जैसी स्थिति थी। हालांकि चुनाव के नतीजाें ने बता दिया है कि भाजपा से ओबीसी नेता जरूर भागे, इसी वर्ग के नेताओं ने नाराजगी भी जताई, मगर गैरयादव ओबीसी बिरादरी भगवा खेमे के साथ ही रही।

अब आगे क्या : विधानसभा चुनाव के नतीजाें ने देश के सबसे अहम प्रदेश के मतदाताओं का संदेश साफ कर दिया है। संदेश यह है कि राज्य में अब उन दलों की राह आसान नहीं है जो पहले भी सत्ता में रहे हैं। मतदाताओं ने बतला दिया है कि राज्य में तब तक कोई बदलाव नहीं होगा जब तक कि उसके सामने पंजाब की तरह कोई नया और ठोस राजनीतिक विकल्प नहीं आ जाए।

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