1930 (टिएंटो/टी-मॉडल): उरुग्वे ने टूर्नामेंट की मेजबानी की थी। तब टी-मॉडल गेंद का इस्तेमाल हुआ था। फाइनल में अर्जेंटीना की टीम इस गेंद से सहमत नहीं थी। इस पर फीफा ने पहले हाफ में अर्जेंटीना द्वारा लाए गए टिएंटो बॉल और दूसरे हाफ में उरुग्वे के टी-मॉडल गेंद का इस्तेमाल किया गया था। उरुग्वे की गेंद ज्यादा भारी थी। गेंद में 13 पैनल थे। एक जगह सिलाई का इस्तेमाल किया गया था।
1934 (फेडरेल 102): इटली की मेजबानी में फेडरेल 102 बॉल से मैचों का आयोजन कराया गया था। यह 1930 वर्ल्ड कप में इस्तेमाल हुए गेंद की तरह ही था।
1938 (एलेन): फ्रांस की मेजबानी में एलेन गेंद से मैच हुए थे। इस बार सिलाई वाले जगह पर तीन पैनल थे। अन्य स्थानों पर दो पैनलों का ही इस्तेमाल किया गया था।
1950 (सुपर डुपलो): ब्राजील ने पहली बार वर्ल्ड कप की मेजबानी की थी। इस पर सुपर डुपलो गेंद से मैच हुए थे। पहली बार ऐसी गेंद का इस्तेमाल किया गया जिसमें हवा न आ सकती थी और न ही जा सकती थी। जितनी हवा गेंद में थी उतनी बरकरार रहती थी।