दूसरी तरफ देश के चुनींदा पूर्व आईपीएस ने पुलिस की भूमिका पर सवाल उठाए हैं। दिल्ली दंगों में ‘खादी और खाकी’ की वह भूमिका नजर नहीं आई, जो कानून के शासन में दिखनी चाहिए थी। उपद्रवियों के होश ठिकाने लगाने में कोई ‘रॉकेट साइंस’ नहीं चाहिए थी, एक आदेश ही काफी था। उसमें भी चूक दिखाई पड़ रही है।
आईबी के पूर्व स्पेशल डायरेक्टर एवं कैबिनेट सचिवालय में सेक्रेटरी ‘सिक्योरिटी’ के पद से रिटायर हुए पूर्व आईपीएस यशोवर्धन आजाद के अनुसार, पुलिस के पास क्या नहीं था। ड्रोन हैं, नजर रखने के दूसरे अत्याधुनिक उपकरण हैं। और कुछ नहीं तो कम से कम शोभा यात्रा जहां से निकलनी थी, वहां की वीडियोग्राफी ही करा लेते। घटना के बाद सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो एवं तस्वीरों का सैलाब आ गया था, लेकिन इन पर भरोसा नहीं किया जा सकता। वजह, उसमें निष्पक्षता की कमी थी। पुलिसकर्मी घायल हो गए। पुलिस के पास अधिकार थे, वह चाहती तो मौके पर कार्रवाई कर सकती थी। पुलिस का इंटेलिजेंस महकमा क्या कर रहा था। उसे तो पहले से ही यह मालूम होना चाहिए था कि फलां इलाके में सांप्रदायिक हिंसा हो सकती है। इस बाबत पहले से तैयारी क्यों नहीं की गई। दंगों को रोकना कोई ‘रॉकेट साइंस’ जितना मुश्किल काम तो है नहीं। दिल्ली पुलिस चाहती तो दंगे को रोका जा सकता था। प्रीवेंटिव एक्शन लिया जा सकता था। यहां भी पुलिस से चूक हो गई। उसके बाद क्रॉस केस और आरोपियों की गिरफ्तारी में भी पुलिस की इच्छाशक्ति, कानून के मुताबिक नहीं रही। अगर समय रहते सख्त कार्रवाई होती तो जहांगीरपुरी के इस दंगे को रोका जा सकता था।
शोभा यात्रा में शामिल लोगों के पास डंडे व धारधार हथियार थे, ऐसा क्यों। दिल्ली पुलिस के पूर्व डीसीपी एलएन राव, जो स्पेशल सेल जैसी महत्वपूर्ण इकाई में 14 साल तक तैनात रहे हैं, बताते हैं, जहांगीरपुरी में शोभा यात्रा के दौरान तलवार, बंदूक या डंडे व रॉड लेकर नारे लगाते हुए चलना, ये जायज नहीं था। अभी इस मामले की जांच चल रही है। दोनों पक्षों ने एक दूसरे पर हिंसा के लिए उकसाने के आरोप लगाए हैं।
ये तो कानून में भी लिखा है कि सामान्य परिस्थितियों में किसी भी शोभा यात्रा व जुलूस में हथियार सहित शामिल होने की इजाजत नहीं दी जाती। नौ इंच से अधिक लंबी तलवार, खुकरी व ब्लेड आदि, जो रसोई के उपकरण नहीं हैं, को इस तरह की शोभा यात्रा में नहीं ले जाया सकता। उसके लिए शस्त्र अधिनियम के तहत लाइसेंस की आवश्यकता होती है। अगर कोई व्यक्ति इन हथियारों को साथ ले जाना चाहता है तो उस लाइसेंस धारक को यह लिखकर देना होता है कि वह ऐसे किसी भी हथियार को किसी मेले, धार्मिक जुलूस, सार्वजनिक सभा में या परिसर के भीतर नहीं ले जाएगा।
शूटिंग जैसे खेलों में भाग लेने या अभ्यास करने की बात अलग है। इसके लिए अलग से नियम बनाए गए हैं। एलएन राव के अनुसार, जुलूस में ऐसे हथियार प्रदर्शित करना या उनका इस्तेमाल करना, इसे आईपीसी की धारा 188 के तहत ‘एक लोक सेवक द्वारा विधिवत रूप से घोषित आदेश की अवज्ञा’ का अपराध माना जाता है। जुलूस या रैली के लिए पुलिस और सिविल प्रशासन की अनुमति लेनी पड़ती है। यह भी लिखकर देना होता है कि जुलूस में शांति व्यवस्था बनाई रखी जाएगी। कुछ समुदायों को इस तरह की शर्तों से छूट भी मिल जाती है। हालांकि देश में धार्मिक या सामुदायिक कार्यक्रमों में वह छूट बहुत सीमित रहती है।
कर्नाटक पुलिस के पूर्व डीजीपी अजय कुमार सिंह के मुताबिक, पुलिस घटना से पहले अगर सख्त कार्रवाई करती तो दंगे को रोका जा सकता था। भारतीय पुलिस के पास ऐसी स्थिति में पर्याप्त शक्तियां हैं। पुलिस को किसी से पूछना नहीं था कि क्या करना है। मौजूदा समय में दिल्ली पुलिस को क्या किसी से आदेश लेने थे, नहीं लेने थे। पुलिस अधिकारी सक्षम हैं। वे जानते हैं कि ऐसी स्थिति से कैसे निपटना होता है। उन्होंने यह बात मानी है कि कई मौकों पर उन्हें कानून के अनुसार आजादी नहीं मिलती।
राजनीतिक नेतृत्व जब हर तरह के निर्णय लेता है तो यहीं से सवाल उठने शुरू हो जाते हैं। पुलिस नेतृत्व तब तक कैसे काम कर सकता है, जब तक राजनीतिक नेतृत्व नहीं चाहेगा। डीसी और एसपी, इन दोनों की जिम्मेदारी होती है। वे ऐसे किसी भी दंगे को होने से पहले ही रोक सकते हैं, बशर्ते अगर इच्छाशक्ति हो तो। देश में राजनीतिक नेतृत्व और पुलिस नेतृत्व को एक प्लेटफार्म पर आना होगा। पुलिस को ऐसे मामले में जब यह भरोसा होता है तो वह सही दिशा में कार्रवाई कर रही है और इसके लिए उसे कहीं से आदेश नहीं लेने हैं तो दंगा कभी नहीं हो सकता।
