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न्याय मित्र ने सुप्रीम कोर्ट से कहा: सांसद-विधायकों के लिए विशेष अदालतें असांविधानिक नहीं

अमर उजाला ब्यूरो, नई दिल्ली
Published by: देव कश्यप
Updated Sun, 14 Nov 2021 03:30 AM IST

सार

पूर्व सांसदों-विधायकों समेत संसद और राज्य विधानसभाओं के निर्वाचित प्रतिनिधियों के खिलाफ आपराधिक मामलों के त्वरित निपटान को सुनिश्चित करने के लिए केंद्र सरकार ने शीर्ष अदालत के सुझाव के बाद विशेष अदालतों को मंजूरी दी थी।

सर्वोच्च न्यायालय
– फोटो : पीटीआई

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सुप्रीम कोर्ट में न्यायमित्र ने शनिवार को बताया कि मद्रास हाईकोर्ट की आपराधिक नियम समिति का यह निष्कर्ष सही नहीं है कि सांसद-विधायकों के लिए विशेष अदालतों का गठन असांविधानिक हैं। समिति का कहना था कि अदालतें केवल ‘अपराध केंद्रित’ होती हैं, यह कभी भी ‘अपराधी केंद्रित’ नहीं हो सकतीं। 

न्याय मित्र वरिष्ठ वकील विजय हंसरिया और वकील स्नेहा कलिता ने सुप्रीम कोर्ट में दायर एक रिपोर्ट में कहा, 13 अक्तूबर को हाईकोर्ट का यह कथन भी गलत है कि न्यायिक आदेश द्वारा विशेष अदालतों का गठन कभी नहीं किया जा सकता है। सांसद-विधायक अपने आप में एक वर्ग का गठन करते हैं और इस प्रकार सांसदों-विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामलों की त्वरित सुनवाई के लिए विशेष अदालतों का गठन किया जा सकता है, जो जनहित में है। ऐसे में हाईकोर्ट के परामर्श के बाद राज्य सरकारों द्वारा अधिसूचना जारी करके सांसद-विधायकों की विशेष अदालत का गठन सांविधानिक रूप से वैध है।

पूर्व सांसदों-विधायकों समेत संसद और राज्य विधानसभाओं के निर्वाचित प्रतिनिधियों के खिलाफ आपराधिक मामलों के त्वरित निपटान को सुनिश्चित करने के लिए केंद्र सरकार ने शीर्ष अदालत के सुझाव के बाद विशेष अदालतों को मंजूरी दी थी। भाजपा नेता और वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय की जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए यह निर्णय लिया गया था। 

वर्षों से लंबित मामलों की त्वरित सुनवाई के लिए गठन जरूरी 
रिपोर्ट में कहा गया है कि सांसद-विधायक, देश के सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए नीतियां बनाते हैं और सांविधानिक नैतिकता को बनाए रखने के लिए जिम्मेदार होते हैं। यह रिकॉर्ड पर है कि जघन्य अपराधों समेत बड़ी संख्या में मामले वर्षों से अदालतों में लंबित हैं बल्कि दशकों से लंबित हैं। ऐसी परिस्थितियों में इन मामलों की त्वरित सुनवाई के लिए एक विशेष तंत्र त्रुटिपूर्ण नहीं हो सकता।

न्यायिक अधिकारियों को दो वर्ष तक पद पर रखने की मांग 
रिपोर्ट में कोर्ट से विशेष अदालतों की अध्यक्षता करने वाले न्यायिक अधिकारियों के पदनाम की पुष्टि करने और उन्हें दो साल के लिए पद संभालने की अनुमति देने के लिए भी कहा गया है। साथ ही रिपोर्ट में केंद्र सरकार को सभी अदालतों में वीडियो कॉन्फ्रेंस की सुविधा के लिए आवश्यक धनराशि उपलब्ध कराने का निर्देश देने की भी मांग की गई है।

विस्तार

सुप्रीम कोर्ट में न्यायमित्र ने शनिवार को बताया कि मद्रास हाईकोर्ट की आपराधिक नियम समिति का यह निष्कर्ष सही नहीं है कि सांसद-विधायकों के लिए विशेष अदालतों का गठन असांविधानिक हैं। समिति का कहना था कि अदालतें केवल ‘अपराध केंद्रित’ होती हैं, यह कभी भी ‘अपराधी केंद्रित’ नहीं हो सकतीं। 

न्याय मित्र वरिष्ठ वकील विजय हंसरिया और वकील स्नेहा कलिता ने सुप्रीम कोर्ट में दायर एक रिपोर्ट में कहा, 13 अक्तूबर को हाईकोर्ट का यह कथन भी गलत है कि न्यायिक आदेश द्वारा विशेष अदालतों का गठन कभी नहीं किया जा सकता है। सांसद-विधायक अपने आप में एक वर्ग का गठन करते हैं और इस प्रकार सांसदों-विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामलों की त्वरित सुनवाई के लिए विशेष अदालतों का गठन किया जा सकता है, जो जनहित में है। ऐसे में हाईकोर्ट के परामर्श के बाद राज्य सरकारों द्वारा अधिसूचना जारी करके सांसद-विधायकों की विशेष अदालत का गठन सांविधानिक रूप से वैध है।

पूर्व सांसदों-विधायकों समेत संसद और राज्य विधानसभाओं के निर्वाचित प्रतिनिधियों के खिलाफ आपराधिक मामलों के त्वरित निपटान को सुनिश्चित करने के लिए केंद्र सरकार ने शीर्ष अदालत के सुझाव के बाद विशेष अदालतों को मंजूरी दी थी। भाजपा नेता और वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय की जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए यह निर्णय लिया गया था। 

वर्षों से लंबित मामलों की त्वरित सुनवाई के लिए गठन जरूरी 

रिपोर्ट में कहा गया है कि सांसद-विधायक, देश के सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए नीतियां बनाते हैं और सांविधानिक नैतिकता को बनाए रखने के लिए जिम्मेदार होते हैं। यह रिकॉर्ड पर है कि जघन्य अपराधों समेत बड़ी संख्या में मामले वर्षों से अदालतों में लंबित हैं बल्कि दशकों से लंबित हैं। ऐसी परिस्थितियों में इन मामलों की त्वरित सुनवाई के लिए एक विशेष तंत्र त्रुटिपूर्ण नहीं हो सकता।

न्यायिक अधिकारियों को दो वर्ष तक पद पर रखने की मांग 

रिपोर्ट में कोर्ट से विशेष अदालतों की अध्यक्षता करने वाले न्यायिक अधिकारियों के पदनाम की पुष्टि करने और उन्हें दो साल के लिए पद संभालने की अनुमति देने के लिए भी कहा गया है। साथ ही रिपोर्ट में केंद्र सरकार को सभी अदालतों में वीडियो कॉन्फ्रेंस की सुविधा के लिए आवश्यक धनराशि उपलब्ध कराने का निर्देश देने की भी मांग की गई है।

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