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आजादी का अमृत महोत्सव : पहचान की तलाश में हिमाचल प्रदेश, भारी उथल-पुथल से गुजरा राज्य

सार

देश की आजादी के 75वें वर्ष में हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं, तो देवभूमि नाम से विख्यात हिमाचल प्रदेश पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त होने की स्वर्ण जयंती। अब तक राज्य ने कई क्षेत्रों में खास उपलब्धियां हासिल की हैं, लेकिन कुछ क्षेत्रों में अपेक्षित प्रगति नहीं कर पाया है। इस अवसर पर विभिन्न क्षेत्रों में राज्य की उपलब्धियों और कमियों पर नजर डालना प्रासंगिक होगा।

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गौरवपूर्ण ऐतिहासिक अर्थों में माना जाता है कि कोल और मुंडा वर्तमान हिमाचल की पहाड़ियों के मूल निवासी थे, जिनका वेदों में उल्लेख है। हिमाचल की अद्वितीयता और विशिष्टता का पता ऑल इंडिया पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के लुधियाना सत्र से लगाया जा सकता है, जिसकी अध्यक्षता 83 वर्ष पहले पंडित जवाहरलाल नेहरू ने की थी। 

साथ ही, यह भी एक स्थापित तथ्य है कि इतिहास ने एक बेदाग और निर्दोष व कठोर सत्य दर्ज किया है कि अगर एक मजबूत, खुशमिजाज और दृढ़ इच्छाशक्ति वाले डॉ. यशवंत सिंह परमार नहीं होते तो आज हिमाचल जैसा कोई पहाड़ी राज्य नहीं होता, जो अपनी पहचान को बनाए रखने के लिए प्रमुख नेताओं द्वारा किए गए बलिदानों और लोगों के संघर्षों और भारी उथल-पुथल से गुजरा। 

भारत गर्व से आजादी के 75 साल को अलग-अलग तरीके से मना रहा है, लेकिन हिमाचल की पहचान की रक्षा के लिए इस पहाड़ी राज्य के निर्दोष लोगों द्वारा किए गए अपार संघर्ष और असंख्य बलिदानों पर एक सरसरी निगाह डालना बाकी देशवासियों के लिए अब भी अज्ञात है।

हिमाचल के लोगों का संघर्ष
स्मृति की गलियों से गुजरते हुए बहुत से ऐसे चौंकाने वाले खुलासे होते हैं, जो हिमाचल के लोगों के संघर्ष पर प्रकाश डालते हैं, जिन्होंने उन ताकतों के हमलों का सामना किया, जो इस राज्य का पंजाब में विलय कराने पर आमदा थे। संक्षिप्त इतिहास से पता चलता है कि 15 अप्रैल, 1948 को हिमाचल प्रदेश प्रांत के मुख्य आयुक्त का पद अस्तित्व में आया और 26 जनवरी, 1950 को भारतीय संविधान लागू होने के साथ ही हिमाचल प्रदेश पार्ट सी राज्य बना।

बिलासपुर जिले को एक जुलाई, 1954 को हिमाचल प्रदेश में मिला दिया गया, जबकि एक नवंबर, 1956 को हिमाचल प्रदेश एक केंद्रशासित प्रदेश बना। फिर एक नवंबर, 1966 को पंजाब के अधिकांश अन्य पहाड़ी इलाकों के साथ कांगड़ा को हिमाचल प्रदेश में मिला दिया गया, हालांकि यह केंद्रशासित प्रदेश ही बना रहा, फिर 25 जनवरी, 1971 को इसे राज्य का दर्जा दिया गया।

स्वतंत्र पहचान बनाए रखने के संघर्ष का जब हम पता लगाते हैं, तो मालूम पड़ता है कि डॉ. यशवंत सिंह परमार सबसे आगे खड़े हुए और पंडित पदम देव सहित अन्य नेताओं ने राज्यों का संघ बनाने के रियासती प्रयासों को विफल कर दिया और यह तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल ही थे, जिन्होंने इस पहाड़ी राज्य के लोगों की इच्छाओं का समर्थन किया कि अपनी अलग संस्कृति, परंपराओं और स्थलाकृतियों के कारण इसकी अलग पहचान बनी रहनी चाहिए। 

सिरमौर जिले के एक पिछड़े गांव से ताल्लुक रखने वाले और 17 वर्षों तक राज्य का मुख्यमंत्री रहने तथा इस छोटे से राज्य का संस्थापक होने के बावजूद जब दो मई, 1981 को डॉ. परमार स्वर्ग सिधार गए थे, तो संभवतः वह देश के अकेले ऐसे राजनेता थे, जिनके बैंक खाते में मात्र 563 रुपये 30 पैसे थे और उनके नाम पर कोई संपत्ति नहीं थी।

सात दशकों से अधिक समय बाद हमें खुद से पूछना चाहिए कि क्या वर्तमान परिदृश्य में ऐसे ईमानदार, समर्पित और दूरदर्शी राजनेता का सपना देखना भी संभव है? वह एक ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने राज्य के विकास के लिए त्रि-आयामी सिद्धांत पर काम किया। श्रमदान (स्वैच्छिक श्रम) के माध्यम से अपने पैतृक गांव के लिए 40 किमी सोलन-राजगढ़ सड़क का निर्माण करवाया। उन्होंने स्वयं भी इसमें भाग लिया था और अपने मुख्यमंत्री काल के दौरान अन्य जगहों पर भी यही मॉडल लागू किया था।

प्रगति पथ पर हिमाचल प्रदेश
हिमाचल प्रदेश में 1948 में आर्थिक नियोजन का युग शुरू हुआ और पहली पंचवर्षीय योजना के दौरान हिमाचल को 5.27 करोड़ रुपये आवंटित हुए। 50 फीसदी से ज्यादा राशि परिवहन सुविधाओं पर खर्च की गई, क्योंकि यह महसूस किया गया कि बिना उचित परिवहन सुविधा के योजना की प्रक्रिया और विकास का काम नहीं हो सकता है। हिमाचल प्रगति के पथ पर बढ़ रहा है, लेकिन इसकी अर्थव्यवस्था पटरी पर नहीं है।

इसका सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वर्ष 2020-21 में 1.82 लाख करोड़ रुपये था और देश में यह 22वें पायदान पर था, लेकिन सार्वजनिक ऋण ने 33.62 फीसदी की सीमा को छू लिया है और वर्ष 2020-21 में 49,131 की तुलना में राजस्व 38,465 करोड़ रुपये था, जो हर हिमाचली के लिए चिंताजनक है।

यह विडंबना ही है कि एक के बाद एक शासन में रही कांग्रेस एवं भारतीय जनता पार्टी विभिन्न क्षेत्रों में अपनी उपलब्धियों का दावा करते नहीं थकती हैं, लेकिन जबत क निर्वाचित जन प्रतिनिधि अमीर-गरीब में भेदभाव बंद नहीं करेंगे, राजनेताओं के विवेक पर वोट खींचने का जुनून हावी रहेगा, तब तक वे आजादी के 75 साल का अर्थ और महत्व नहीं समझेंगे।

चुनौतियां बरकरार
गांवों में स्वास्थ्य केंद्रों में डॉक्टरों, स्वास्थ्यकर्मियों और धन सुनिश्चित करना हिमाचल की कुछ सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है। इनके बगैर किसी उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो सकती है। दूसरी बात, शिक्षक राजनेताओं के माध्यम से मनपसंद जगहों पर अपनी पोस्टिंग कराते हैं और अंदरूनी इलाकों में वोट पाने के लिए स्कूल, कॉलेज आदि खोले तो जाते हैं, लेकिन वे कर्मचारियों के बगैर निरर्थक होते हैं।

तीसरी बात, हिमाचल ने सड़क निर्माण एवं संचार में प्रगति की है, लेकिन अब भी बहुत कुछ करना बाकी है। केंद्र एवं राज्य की सरकारें भले ही उपलब्धियों के बड़े-बड़े दावे करके खुद को संतुष्ट कर लें, लेकिन गरीब लोगों को दो वक्त के भोजन के भोजन की गारंटी देने के अलावा उनके जीवन स्तर को बढ़ाने के लिए ग्रामीण लोगों और कृषि पर ध्यान देना चाहिए, जो हमारे इस अमृत महोत्सव को सार्थक बना सके। अन्यथा, वह केवल धोखा, छल, छिपाव और आत्म-पराजय के भाव से भरा हुआ होगा।

विस्तार

गौरवपूर्ण ऐतिहासिक अर्थों में माना जाता है कि कोल और मुंडा वर्तमान हिमाचल की पहाड़ियों के मूल निवासी थे, जिनका वेदों में उल्लेख है। हिमाचल की अद्वितीयता और विशिष्टता का पता ऑल इंडिया पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के लुधियाना सत्र से लगाया जा सकता है, जिसकी अध्यक्षता 83 वर्ष पहले पंडित जवाहरलाल नेहरू ने की थी। 

साथ ही, यह भी एक स्थापित तथ्य है कि इतिहास ने एक बेदाग और निर्दोष व कठोर सत्य दर्ज किया है कि अगर एक मजबूत, खुशमिजाज और दृढ़ इच्छाशक्ति वाले डॉ. यशवंत सिंह परमार नहीं होते तो आज हिमाचल जैसा कोई पहाड़ी राज्य नहीं होता, जो अपनी पहचान को बनाए रखने के लिए प्रमुख नेताओं द्वारा किए गए बलिदानों और लोगों के संघर्षों और भारी उथल-पुथल से गुजरा। 

भारत गर्व से आजादी के 75 साल को अलग-अलग तरीके से मना रहा है, लेकिन हिमाचल की पहचान की रक्षा के लिए इस पहाड़ी राज्य के निर्दोष लोगों द्वारा किए गए अपार संघर्ष और असंख्य बलिदानों पर एक सरसरी निगाह डालना बाकी देशवासियों के लिए अब भी अज्ञात है।

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