कितने भयावह होते हैं वो शहर जिनका कोई अतीत नहीं होता,सहेजने के लिए कोई इतिहास नहीं होता। उससे भी ज्यादा डरावने वे शहर होते हैं जो अपनी स्मृतियां खो चुके होते हैं। चेन्नई से करीब 80 किलोमीटर दूर तिरुत्तानी, रोजमर्रा की जिंदगी से जूझता, ऐसा ही एक उदास शहर है, जहां देश के पहले उपराष्ट्रपति, दूसरे राष्ट्रपति और महान दार्शनिक सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म हुआ था। पुराने शहर के ठीक बीच रेलवे का बंद फाटक बेचैनियां बढ़ा देता है।
रेलवे फाटक पार करके जो मोहल्ला शुरू होता है, वह उत्तर भारत के मध्यवर्गीय मोहल्लों से जरा भी अलग नहीं है। वही टूटी हुई सड़कें, पुराने उजड़े प्लास्टरों के बेरंग मकान, परचून की कुछ दुकानें, खुले में बिकती मांस-मछली की गंदी दुकानें। ठीक गली के नुक्कड़ पर चाय की एक दुकान और सामने फिर एक लंबी-सी गली। यहां अगर आप किसी से सर्वपल्ली के घर का पता पूछिए तो वो अंग्रेजी और तमिल मिश्रित भाषा में बताएंगे- ‘हिज विडु इज वडरूबकम’ यानी उनका घर आगे दायीं तरफ है।
थोड़ा आगे बढ़ते ही एक बदरंग दोमंजिला मकान दिखेगा जिसके दरवाजे पर लाल पोस्ट बॉक्स लटका होगा। घर की दीवार पर कुछ बेतरतीब बोर्ड लटके हैं। बीच में एक इबारत लिखी है- ‘डॉ. राधाकृष्णन लाइब्रेरी एंड कल्चरल सेंटर।’ घर के लॉन में लगे ऊंचे अशोक के पेड़ की पत्तियां अंत के कुछ अक्षरों को छुपा लेती हैं। बाहर से देखने में ये उदास दोमंजिला मकान कोई रोमांच या कौतूहल पैदा नहीं करता।
भीतर से दरवाजा सीधे एक बड़े से हॉल में खुलता है। हॉल से सटी एक छोटी-सी कोठरी है, इसकी दीवार पर टूटे हुए स्विच के नीचे संगमरमर की तख्ती पर लिखा है- ‘सर्वपल्ली राधाकृष्णन वॉज बॉर्न हियर’ 5 सितंबर 1888′ यानी सर्वपल्ली यहां जन्मे थे। नीचे के हॉल के ठीक ऊपर की मंजिल पर एक और हॉल है, जो लाइब्रेरी है। केयर टेकर श्रवणन बताते हैं कि नीचे का यह हॉल गरीब छोटे बच्चों का डे बोर्डिंग है। बस घर खत्म।
दो बड़े हॉल और एक कोठरी, ये किसी का रिहायशी घर नहीं हो सकता। ये अनसुलझी पहेली सुलझाते हुए मैं ऊपर लाइब्रेरी की तरफ जीने चढ़ता हूं। ऊपर लाइब्रेरी हॉल में लकड़ी की अलमारियों में पुरानी किताबें हैं और बीच में लंबी-लंबी मेजें। दो बुजुर्गवार कोई तमिल अखबार पलट रहे हैं। उनसे परिचय होता है और थोड़ी ही देर में इतिहास के पन्ने खुद-ब-खुद पलटने लगते हैं।
18वीं सदी के मध्य में राधाकृष्णन के पूर्वज अपना आंध्रा का पैतृक गांव सर्वपल्ली छोड़कर तिरुत्तानी में आकर बस गए थे। राधाकृष्णन के गरीब पिता सर्वपल्ली वीरस्वामी एक जमींदार के मुंशी थे। उनका विवाह यहीं की सीताम्मा से हुआ था। राधाकृष्णन तिरुत्तानी में जन्मे पर पैतृक गांव ‘सर्वपल्ली’ उनके नाम के आगे जुड़ गया। यह शहर सदियों पुराने भगवान मुरुगन यानी कार्तिकेय के भव्य मंदिर के लिए प्रसिद्ध है।
19वीं सदी के अंत में इस शहर में बहुत छोटे-छोटे घर हुआ करते थे। उनकी छतें खपरैल की होती थीं जिनके ऊपर काले सीमेंट का लेप लगा दिया जाता था। अंदर छोटे कमरे छोटे दरवाजे और छोटे बाथरूम। करीब सौ साल पुराने इन घरों के खंडहर तिरुत्तानी के मोहल्लों में आज भी मौजूद हैं। ऐसा ही एक खंडहर ठीक सर्वपल्ली के मकान से लगा हुआ है। (देखें तस्वीर) उनके पड़ोसी मुल्लुस्वामी कहते हैं- ‘सर्वपल्ली का जन्म जिस तरह के घर में हुआ होगा वो तब ऐसा ही रहा होगा। शुरू में इस मोहल्ले के सारे घर ऐसे ही थे।’
सर्वपल्ली के बचपन के बमुश्किल आठ-दस साल ही इस घर में गुजरे होंगे। फिर वह स्कॉलरशिप पर आगे पढ़ने तिरुपति और वेल्लूर चले गए। फिर उच्च शिक्षा के लिए मद्रास। राष्ट्रपति बनने से बहुत पहले वे चेन्नई में ही घर बना कर वहीं बस गए और जन्मस्थान, तिरुत्तानी से उनका नाता हमेशा के लिए कट गया। हैरत की बात ये कि तिरुत्तानी कभी राधाकृष्णन के लगाव का केंद्र नहीं रहा। स्वामी कहते हैं- ‘शायद कुछ कड़वी यादों को वे यहीं दफ्न कर देना चाहते थे।’
राष्ट्रपति बनने के बाद सर्वपल्ली ने अपना ये घर सुब्रह्मण्यमस्वामी देवस्थान ट्रस्ट को दे दिया। ट्रस्ट ने 1962 में सर्वपल्ली के राष्ट्रपति बनते ही उनके पुराने छोटे घर के अवशेष हटा कर यहां पुस्तकालय और कल्चरल सेंटर के नाम पर ऊपर-नीचे दो हॉल बनवा दिए। साथ ही एक छोटी-सी कोठरी बनाकर उसमें सर्वपल्ली के जन्मस्थान की तख्ती लगा दी। लाइब्रेरी रोज खुलती है। आसपास के बुजुर्ग यहां आकर अखबार के पन्ने पलटते हैं।
पूरे कल्चरल सेंटर में सर्वपल्ली का न कोई स्मारक है, न यहां उनके बारे में कुछ लिखा है। यहां न उनके घर के पुराने फर्नीचर हैं और न पुरानी तस्वीरें और न पुरानी कोई भी यादें। ये भवन एक उजड़े हुए अखबारखाने के अलावा और कुछ नहीं है। न कभी तमिलनाडु सरकार ने इसकी सुध ली न केंद्र की सरकार ने। राज्यसभा ने भी कभी अपने पहले चेयरमैन के जन्मस्थान के बारे में कुछ नहीं सोचा। 1988 में सर्वपल्ली का जन्म शताब्दी वर्ष ऐसे ही सादा बीत गया। नई सदी आई और तिरुत्तानी की स्मृतियां अंधेरी शताब्दी में विलीन हो गईं।
इस इमारत के ठीक सामने अपने अम्मा-अप्पा के साथ रहने वाली प्रिया कहती हैं- ‘मैं 45 की हो गई हूं। इन सालों में मुझे याद नहीं आता कि कभी शिक्षक दिवस पर भी यहां कोई समारोह हुआ हो। बचपन के दिनों में हम इस सामने वाले घर में छुपाछुपी खेलते थे। बाद में गेट बंद रहने लगा। इस बदरंग इमारत को देखिए। इसकी पेंटिंग होती हमने तो कभी नहीं देखी। कई बार मन हुआ कि सरकार को इस भवन की बदहाली के बारे में लिखूं। फिर ये सोच की पीछे हट जाती हूं कि मैं ही क्यों? मैं तो यहां अखबार पढ़ने तक नहीं जाती।’
पहला स्कूल
बाइबिल याद कर बनाया स्कॉलरशिप का रास्ता : पहला स्कूल नींव का पत्थर होता है। तिरुत्तानी का वो प्राइमरी स्कूल सर्वपल्ली से घर से कोई तीन किमी दूर था। पिता वीरस्वामी चाहते थे कि राधाकृष्णन पढ़ लिखकर एक पुजारी बने। लेकिन प्रतिभाशाली राधाकृष्णन की उड़ान इससे कहीं और ऊंची थी। प्राइमरी स्कूल से ही उन्हें वजीफा मिलने लगा था। स्कूल की दीवार पर तमिल में लिखा है- ‘हमारा सौभाग्य है कि सर्वपल्ली राधाकृष्णन इस स्कूल में पढ़े थे।’
इस स्कूल का नाम अब ‘डॉ. राधाकृष्णन मिडिल स्कूल’ है। तेज दिमाग के राधाकृष्णन ने 1896 में ये स्कूल छोड़ दिया। फिर उनका दाखिला तिरुपति के लूथरन मिशन स्कूल में करा दिया गया, जहां उन्होंने बाइबल के कई पाठ कंठस्थ कर लिए थे। शायद वे जानते थे कि उनकी अगली स्कॉलरशिप का दरवाजा बाइबल से खुलेगा।
डॉ. राधाकृष्णन पर किताब लिखने वाले क्रिश्चियन कॉलेज दर्शनशास्त्र के एसोसिएट प्रो. जोशुआ कलापति कहते हैं-“20वीं सदी के शुरू में इस कॉलेज में प्रतिभा का एक नया सूरज उग रहा था, जिसे सारे विश्व को प्रकाशित करना था।”
पुरानी किताबों से बने दार्शनिक
पहला कॉलेज : तिरुत्तानी और तिरुपति ये दोनों दक्षिण भारत के दो बड़े धार्मिक स्थल हैं। तमिलों के देवता तिरुत्तानी के मुरुगन स्वामी हैं तो आंध्रा तेलुगुभाषियों के देवता तिरुपति बालाजी। इन दोनों धार्मिक स्थलों के संस्कार राधाकृष्णन के किशोर मन पर कहीं गहरे पड़े।
अब सवाल उठता है, क्या इसी वजह से वे दर्शन और अध्यात्म की ओर झुकते चले गए? इसका रहस्य मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज में जाकर खुला। 1839 में बना ये अंग्रेजों का सबसे पुराना कॉलेज है। इसकी खूबसूरत इमारत उन दिनों पेरिस कार्नर के नाम से मशहूर थी। तब ये कॉलेज मद्रास के जार्जटाउन में था।
आज इस भव्य कॉलेज की रैंकिंग देश में तीसरे नंबर पर है। 17 साल की उम्र में राधाकृष्णन मद्रास के इसी क्रिश्चियन कॉलेज में दाखिला लेने पहुंचे थे। उन दिनों दाखिले के लिए यहां परीक्षा होती थी। जिसमें टॉप करने पर राधाकृष्णन को दो-दो स्कॉलरशिप मिली। लेकिन उनका विषय अब तक तय नहीं था।
उनके सामने चार विकल्प थे- गणित, जीव व रसायन विज्ञान, इतिहास और दर्शनशास्त्र। उनके चचेरे भाई ने उसी साल दर्शनशास्त्र की डिग्री ली थी। उन्होंने दर्शनशास्त्र की अपनी सारी किताबें अपने गरीब भाई राधाकृष्णन को दे दीं और उनका भविष्य तय हो गया।
दार्शनिक डिल्थे के हवाले से राधाकृष्णन ने लिखा- ‘और दर्शनशास्त्र की पढ़ाई, मेरी किस्मत का हिस्सा बन गई, लेकिन क्या यह मेरे व्यक्तित्व का नतीजा थी? या यह केवल एक मौका था, जिसने मुझे पुरानी किताबें थमा दी थीं। ऊपर से देखने में यह महज एक हादसा लगता है। लेकिन जब इसे बारीकी से देखता हूं दुर्घटनाओं की एक पूरी श्ृंखला है, जिन्होंने मेरे जीवन को आकार दिया है।’