हिमांशु मिश्र, नई दिल्ली।
Published by: Jeet Kumar
Updated Thu, 02 Sep 2021 01:51 AM IST
सार
बातचीत का आग्रह तालिबान की ओर से था और इसके लिए उसने शेर मोहम्मद अब्बास स्टेनकजई जैसे कद्दावर नेता को वार्ताकार तय किया था। इसलिए भारत ने पहली आधिकारिक वार्ता के जरिए तालिबान के भावी रुख को समझने की रणनीति अपनाई।
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विस्तार
सरकारी सूत्रों ने माना, तालिबान के साथ आधिकारिक बातचीत में रूस की भी भूमिका थी। हालांकि उक्त सरकारी सूत्र ने कहा कि अफगानिस्तान में बदली परिस्थितियों के बीच भारत सीधे तालिबान नेतृत्व के तो नहीं मगर उससे जुड़े कई गुटों के संपर्क में था।
तालिबान को मान्यता देने से पहले भारत नई सरकार की भावी नीतियों और अपने हितों से जुड़े मुद्दों पर उसके रुख को भांपना चाहता है। तालिबान के आने के बाद भारत ने भले ही अपना दूतावास बंद कर दिया है, मगर अभी तक अफगानिस्तान से राजनयिक संबंध नहीं तोड़े हैं।
दरअसल बीते दो दशकों में विकास और जनहित के कामों के कारण भारत ने अफगानिस्तान में अपनी अच्छी छवि बनाई है। वहां भारत ने अरबों डॉलर का निवेश भी किया है।
इस बार अलग-थलग नहीं है तालिबान
अफगानिस्तान में तालिबान के दूसरी बार उदय के दौरान स्थितियां बदली हुई हैं। पहले तालिबान के खिलाफ करीब-करीब पूरी दुनिया एकजुट थी। साल 1996 से 2001 तक के शासन के दौरान उसे बस पाकिस्तान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात की ही मान्यता मिली थी।
इस बार पाकिस्तान, ईरान, रूस और चीन जैसे देश खुलकर उसके साथ हैं। जबकि अमेरिका सहित अन्य कई अहम देशों के अलावा संयुक्त राष्ट्र के रुख में भी तालिबान के प्रति पुरानी आक्रामकता गायब है। ये सभी देश परोक्ष तौर पर चाहते हैं कि अफगानिस्तान में सरकार का गठन हो।
अब भी फंसे हैं नागरिक
भारत को अफगानिस्तान में फंसे करीब दो दर्जन नागरिकों की चिंता है। इसके अलावा करीब छह दर्जन हिंदू-सिख अल्पसंख्यकों को भी भारत वहां से निकालना चाहता है। भारत अब तक अपने 453 नागरिकों और 112 हिंदू-सिख अल्पसंख्यकों को वहां से निकाल चुका है। उसने फंसे हुए अपने नागरिकों और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के प्रति अपनी चिंता से तालिबान को मंगलवार को हुई वार्ता में अवगत कराया है।