वर्ल्ड डेस्क, अमर उजाला, काबुल
Published by: Harendra Chaudhary
Updated Fri, 14 Jan 2022 03:01 PM IST
सार
पाकिस्तान ने दो करोड़ 80 लाख डॉलर की सहायता देने का वादा किया है, लेकिन वह मदद भी अभी अफगान जनता तक नहीं पहुंची है। ‘अफगानिस्तान इस्लामी अमीरात’ सरकार के सूचना मंत्रालय के प्रवक्ता बिलाल करीमी ने हाल में चीन के साथ तालिबान के रिश्ते को ‘रहस्यमय’ बताया…
पिछले अगस्त में काबुल को अपने कब्जे में लेने के बाद से तालिबान लगातार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपना अलगाव खत्म करने की कोशिशों में जुटा रहा है। लेकिन उसके ये प्रयास सफल नहीं हुए हैं। इसका नतीजा है कि अफगानिस्तान में आर्थिक मुश्किलें बढ़ती चली गई हैं। उससे देश में अब भुखमरी जैसे हालात बनने लगे हैं।
मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक अमेरिका और दूसरे पश्चिमी देशों के आर्थिक प्रतिबंधों के कारण अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था जर्जर हो गई है। इसके बीच तालिबान की पाकिस्तान और आर्थिक चीन से मदद मिलने की उम्मीद भी पूरी नहीं हुई है। इन दोनों देशों ने भी अब तक काबुल में स्थित तालिबान सरकार को मान्यता नहीं दी है। बीते सितंबर में चीन ने तीन करोड़ 10 लाख डॉलर की खाद्य सामग्री, दवा, कोविड-19 वैक्सीन और अन्य सहायता देने का एलान किया था। लेकिन तालिबान नेतृत्व वाली सरकार के शरणार्थी मंत्रालय के मुताबिक चीन ने अब तक आधी सहायता ही भेजी है।
चीन के साथ ‘रहस्यमय’ रिश्ता
पाकिस्तान ने दो करोड़ 80 लाख डॉलर की सहायता देने का वादा किया है, लेकिन वह मदद भी अभी अफगान जनता तक नहीं पहुंची है। ‘अफगानिस्तान इस्लामी अमीरात’ सरकार के सूचना मंत्रालय के प्रवक्ता बिलाल करीमी ने हाल में चीन के साथ तालिबान के रिश्ते को ‘रहस्यमय’ बताया। उन्होंने कहा कि चीन के काबुल स्थित दूतावास के साथ तालिबान सरकार की कई मुद्दों पर गोपनीय वार्ता चल रही है।
विश्लेषकों का कहना है कि अफगानिस्तान चीन के लिए एक कड़ा इम्तिहान बन गया है। अफगानिस्तान और चीन की सीमा आपस में मिलती है। इसलिए अफगानिस्तान में बनने वाली हालत से चीन का अपना हित भी जुड़ा है। अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था बीते दो दशकों से पूरी तरह विदेशी मदद पर निर्भर रही है। ऐसे में जबकि पश्चिमी देशों की अब उसे सहायता में कोई रुचि नहीं दिखती, सारी बात चीन पर आकर टिक गई है। साल भर पहले तक अफगानिस्तान को सबसे ज्यादा मदद अमेरिका से मिलती थी।
थिंक स्टिमसन सेंटर में सीनियर फेलॉ युन सुन ने वेबसाइट निक्कईएशिया.कॉम से कहा- ‘अब चीन अफगानिस्तान को मदद देता है या नहीं, यह एक बड़ा सवाल है। चीन की नीति अकसर अपनी घरेलू सुरक्षा पर केंद्रित रहती है। इसले मुझे नहीं लगता कि चीन अफगानिस्तान में मसीहा की भूमिका निभाने को इच्छुक होगा।’
शिनजियांग और बीआरआई पर चाहता है सहमति
कुछ अन्य विश्लेषकों का मानना है कि चीन तभी अफगानिस्तान की मदद करेगा, अगर वह उसके बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरई) प्रोजेक्ट का हिस्सा बने। तब चीन अफगानिस्तान में इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं में निवेश करेगा। उसमें पाकिस्तान भी सहायक बनेगा। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान के विशेष सहायक रउफ हसन ने इसका संकेत भी दिया है। उन्होंने वेबसाइट निक्कई एशिया से कहा- ‘पाकिस्तान की राय है कि भविष्य में अफगानिस्तान में शांति कायम करने का प्रमुख पहलू विकास होगा। यही चीन का नजरिया है और पाकिस्तान का भी। यह एक एक तार्किक नजरिया है।’
लेकिन एक राय यह भी है कि चीन के निवेश के रास्ते में एक बड़ी बाधा तालिबान को लेकर उसका अविश्वास है। काबुल स्थित राजनीतिक विश्लेषक खैरुल्लाह शिनवारी का कहना है- ‘भौगोलिक रूप से अफगानिस्तान चीन के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसकी सीमा चीन के शिनजियांग प्रांत से लगती है। चीन को अंदेशा है कि कई अफगान गुट शिनजियांग के कुछ संगठनों की मदद कर सकते हैं, जिससे चीन के लिए समस्याएं पैदा होंगी।’ इन विश्लेषकों के मुताबिक इसी वजह से चीन फूंक-फूंक कर कदम रख रहा है।
विस्तार
पिछले अगस्त में काबुल को अपने कब्जे में लेने के बाद से तालिबान लगातार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपना अलगाव खत्म करने की कोशिशों में जुटा रहा है। लेकिन उसके ये प्रयास सफल नहीं हुए हैं। इसका नतीजा है कि अफगानिस्तान में आर्थिक मुश्किलें बढ़ती चली गई हैं। उससे देश में अब भुखमरी जैसे हालात बनने लगे हैं।
मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक अमेरिका और दूसरे पश्चिमी देशों के आर्थिक प्रतिबंधों के कारण अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था जर्जर हो गई है। इसके बीच तालिबान की पाकिस्तान और आर्थिक चीन से मदद मिलने की उम्मीद भी पूरी नहीं हुई है। इन दोनों देशों ने भी अब तक काबुल में स्थित तालिबान सरकार को मान्यता नहीं दी है। बीते सितंबर में चीन ने तीन करोड़ 10 लाख डॉलर की खाद्य सामग्री, दवा, कोविड-19 वैक्सीन और अन्य सहायता देने का एलान किया था। लेकिन तालिबान नेतृत्व वाली सरकार के शरणार्थी मंत्रालय के मुताबिक चीन ने अब तक आधी सहायता ही भेजी है।
चीन के साथ ‘रहस्यमय’ रिश्ता
पाकिस्तान ने दो करोड़ 80 लाख डॉलर की सहायता देने का वादा किया है, लेकिन वह मदद भी अभी अफगान जनता तक नहीं पहुंची है। ‘अफगानिस्तान इस्लामी अमीरात’ सरकार के सूचना मंत्रालय के प्रवक्ता बिलाल करीमी ने हाल में चीन के साथ तालिबान के रिश्ते को ‘रहस्यमय’ बताया। उन्होंने कहा कि चीन के काबुल स्थित दूतावास के साथ तालिबान सरकार की कई मुद्दों पर गोपनीय वार्ता चल रही है।
विश्लेषकों का कहना है कि अफगानिस्तान चीन के लिए एक कड़ा इम्तिहान बन गया है। अफगानिस्तान और चीन की सीमा आपस में मिलती है। इसलिए अफगानिस्तान में बनने वाली हालत से चीन का अपना हित भी जुड़ा है। अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था बीते दो दशकों से पूरी तरह विदेशी मदद पर निर्भर रही है। ऐसे में जबकि पश्चिमी देशों की अब उसे सहायता में कोई रुचि नहीं दिखती, सारी बात चीन पर आकर टिक गई है। साल भर पहले तक अफगानिस्तान को सबसे ज्यादा मदद अमेरिका से मिलती थी।
थिंक स्टिमसन सेंटर में सीनियर फेलॉ युन सुन ने वेबसाइट निक्कईएशिया.कॉम से कहा- ‘अब चीन अफगानिस्तान को मदद देता है या नहीं, यह एक बड़ा सवाल है। चीन की नीति अकसर अपनी घरेलू सुरक्षा पर केंद्रित रहती है। इसले मुझे नहीं लगता कि चीन अफगानिस्तान में मसीहा की भूमिका निभाने को इच्छुक होगा।’
शिनजियांग और बीआरआई पर चाहता है सहमति
कुछ अन्य विश्लेषकों का मानना है कि चीन तभी अफगानिस्तान की मदद करेगा, अगर वह उसके बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरई) प्रोजेक्ट का हिस्सा बने। तब चीन अफगानिस्तान में इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं में निवेश करेगा। उसमें पाकिस्तान भी सहायक बनेगा। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान के विशेष सहायक रउफ हसन ने इसका संकेत भी दिया है। उन्होंने वेबसाइट निक्कई एशिया से कहा- ‘पाकिस्तान की राय है कि भविष्य में अफगानिस्तान में शांति कायम करने का प्रमुख पहलू विकास होगा। यही चीन का नजरिया है और पाकिस्तान का भी। यह एक एक तार्किक नजरिया है।’
लेकिन एक राय यह भी है कि चीन के निवेश के रास्ते में एक बड़ी बाधा तालिबान को लेकर उसका अविश्वास है। काबुल स्थित राजनीतिक विश्लेषक खैरुल्लाह शिनवारी का कहना है- ‘भौगोलिक रूप से अफगानिस्तान चीन के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसकी सीमा चीन के शिनजियांग प्रांत से लगती है। चीन को अंदेशा है कि कई अफगान गुट शिनजियांग के कुछ संगठनों की मदद कर सकते हैं, जिससे चीन के लिए समस्याएं पैदा होंगी।’ इन विश्लेषकों के मुताबिक इसी वजह से चीन फूंक-फूंक कर कदम रख रहा है।
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