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Corona vaccine: कई देशों में कोरोनावैक के प्रभाव में अंतर, मगर गंभीर बीमारी से बचाव में सक्षम

कोरोना से जंग के बीच चीन के दो टीकों सिनोफार्म और कोरोना वैक का इस्तेमाल दुनियाभर में किया जा रहा है। सिनोवैक बायोटेक के कोरोनावैक को विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) से हरी झंडी मिलने के बाद अब ‘कोवैक्स’ मुहिम के तहत भी इसकी कई देशों को आपूर्ति की राह खुल गई है।

माना जा रहा है कि वैक्सीन को तरसते देशों में यह टीका पहुंचने से वहां महामारी रोकने में मदद मिलेगी। हालांकि, क्लीनिकल ट्रायलों में इसके नतीजे मिले-जुले रहे हैं, फिर भी विशेषज्ञों का मानना है कि दुनिया इसकी उपयोगिता को नजरअंदाज नहीं कर सकती।

मृत वायरस तकनीक से बना टीका
साउथैम्पटन यूनिवर्सिटी में ग्लोबल हेल्थ के सीनियर फैलो माइकल हेड के मुताबिक, कोरोनावैक एक निष्क्रिय टीका है। इसे कोरोना के मृत स्वरूप से बनाया गया है। यह मृत वायरस ही शरीर में प्रतिरक्षा तैयार करता है।

लेकिन पश्चिम देशों के आनुंवाशिक तकनीक पर आधारित टीकों से बिलकुल अलग है। निष्क्रिय टीका प्रणाली एक स्थापित तरीका है।  टीकों का बड़े पैमाने पर निर्माण आसान है और इनका सुरक्षा रिकॉर्ड भी अच्छा रहा है। हालांकि, अन्य टीकों के मुकाबले इनसे थोड़ी कमजोर प्रतिरक्षा बनती है।

37 देशों ने दी मंजूरी
37 देशों ने कोरोनावैक के इस्तेमाल को मंजूरी दे दी है। करोड़ों लोग इस टीके के लिए कतार में हैं तो करोड़ों को ही यह लग भी चुका है। काफी लोगों को इसकी खुराकें लगने के बाद वास्तविक परिस्थितियों में इसके प्रभाव के बारे में भी पता लगने लगा है।

51 से 83 फीसदी प्रभावी
कोरोनावैक को लेकर कई देशों में चले तीसरे चरण के परीक्षणों के नतीजे सामने आ गए हैं। इनमें ब्राजील में हुए परीक्षण में यह टीका लोगों में कोरोना के लक्षण को रोकने में 51 फीसदी प्रभावी रहा। वहीं, इंडोनेशिया के परीक्षण में इसकी प्रभावशीलता 65 फीसदी थी।

इस मामले में मॉडर्ना और फाइजर के टीकों का प्रभाव 90 फीसदी से ज्यादा रहा है। लेकिन कोरोना से मौत से बचाव में यह लगभग सौ फीसदी कारगर रहा है। इसी वजह से डब्ल्यूएचओ ने इसके आपात इस्तेमाल की मंजूरी दी है। तुर्की में हुए तीसरे चरण के एक और परीक्षण के नतीजों में पता चला कि कोरोनावैक सुरक्षित है और 83 फीसदी प्रभावी है।

अलग-अलग स्वरूपों के कारण फर्क संभव
इस टीके को लेकर बड़ा सवाल यह है कि इसके नतीजों में इतना अंतर क्यों है? इसकी अहम वजह अलग-अलग देशों में परीक्षणों के दौरान वहां कोरोना के विभिन्न स्वरूपों की मौजूदगी होना है, जिसके चलते इसके प्रभाव में उतार-चढ़ाव दिखा है।

मसलन, दक्षिण अफ्रीका में हुए अध्ययन में वायरस का बीटा स्वरूप था जबकि ब्राजील में गामा स्वरूप प्रचलित था। यही वजह है कि वास्तविक टीकाकरण के दौरान टीकों का अध्ययन महत्वपूर्ण हो जाता है। इससे यह भी पता लगता है कि असल में वायरस का स्वरूप बदलने के साथ टीका उसके खिलाफ कितना कारगर बना है।

चिली में ज्यादा प्रभावी रहा
चिली में 1.02 करोड़ लोगों पर कोरोनावैक के अध्ययन में यह अधिक प्रभावी रहा। इसमें यह टीका लक्षण वाले मरीजों पर 66 फीसदी तो अस्पताल में भर्ती होने से बचाव में 88 फीसदी प्रभावी मिला। शोधकर्ताओं के मुताबिक, चिली में वायरस के अल्फा और गामा स्वरूप मिल रहे हैं। हालांकि, अध्ययन में इन स्वरूपों का टीके पर प्रभाव पड़ने के पर्याप्त आंकड़े नहीं मिले।

पश्चिमी टीकों से पीछे
मॉडर्ना और फाइजर के टीकों के प्रभाव की तुलना में कोरोनावैक पीछे जरूर है। यही वजह है कि कुछ सरकारों का रुख कोरोनावैक पर थोड़ा अनिश्चित है। मसलन, थाईलैंड में कोरोनावैक की पहली खुराक लेने वाले लोगों को दूसरी डोज एस्ट्राजेनेका की देने की तैयारी है। वहां, कोरोनावैक लगवाने के बावजूद स्वास्थ्य कर्मियों के संक्रमित होने के कारण यह कदम उठाया गया है।

संक्रमण बढ़ा, फिलहाल पसंद-नापसंद न देखें
बहरहाल, पिछले हफ्ते दुनियाभर में कोरोना संक्रमण 12 फीसदी बढ़ा है। इस साल भारत जैसे देशों में महामारी का कहर दुनिया के लिए सबक है। गरीब देशों को इस समय ज्यादा टीकों की जरूरत है। ऐसे में कोरोनावैक जैसे टीके को लेकर ज्यादा पसंद या नापसंद जाहिर नहीं करनी चाहिए। डब्ल्यूएचओ से स्वीकृत सभी टीके महामारी से सुरक्षा में मददगार हैं।
 

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