दीवार
– फोटो : अमर उजाला आर्काइव, मुंबई
प्रख्यात पटकथा लेखकों सलीम-जावेद पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाने की चर्चा लंबे अरसे से चलती रही है। जाहिर जब भी ये डॉक्यूमेंट्री सामने आएगी तो सबसे ज्यादा जिस तथ्य को जानने के लिए लोग इसे देखना चाहेंगे, वह होगा कि आखिर इस जोड़ी की इन्हें बड़ा मौका देने वाले सुपरस्टार राजेश खन्ना से अनबन की वजह क्या रही? और, क्या वजह रही हिंदी सिनेमा के एंग्री यंगमैन कहलाए अमिताभ बच्चन से रिश्तों के चलते इन दोनों की जोड़ी टूटने की। सलीम-जावेद और अमिताभ बच्चन हिंदी सिनेमा में एक दूसरे के पूरक रहे हैं। ये जोड़ी टूटने के बाद जावेद अख्तर से तो फिर भी अमिताभ बच्चन के रिश्ते सामान्य रहे लेकिन सलीम खान और अमिताभ बच्चन के रिश्तों को लेकर तरह तरह की बातें सामने आती रही हैं। खुद सलीम खान इस बारे में पूछने पर ज्यादा कुछ नहीं कहते, उनकी चुप्पी में भी हजार जवाब छुपे होते हैं। हिंदी सिनेमा की कालजयी फिल्मों की सूची में शुमार फिल्म ‘दीवार’ भी इस तिकड़ी की कामयाब फिल्म रही है। अपने समय के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक भारत का प्रतिबिंब थी फिल्म ‘दीवार’।
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ईश्वरभक्त मां के नास्तिक बेटे की कहानी
‘दीवार’ मूल रूप से देखा जाए तो सिनेमा में ‘मदर इंडिया’ के नए रूप की कहानी है। यह अपने पति के लापता हो जाने के बाद भी ईश्वर को मानने वाली एक महिला की कहानी है, जिसका बेटा नास्तिक है। या यूं कह लें कि ये एक ऐसे बिगड़े हुए बेटे की कहानी है, जिसकी प्रेमिका उसके साथ शराब पीती है, सिगरेट के धुएं के छल्ले उड़ाती है और अपने प्रेमी के साथ विवाह से पहले शारीरिक संबंध बनाने में उसे दिक्कत नहीं है। ये उस दौर की फिल्म है जिसमें लिव इन को सामाजिक मान्यता नहीं मिली थी और जिसमें बेटों को चिढ़ाने के लिए बाप का नाम बीच में ले आना विरोधियों की पहली चाल हुआ करती थी, इसकी परछाई आपको बीते साल रिलीज हुई फिल्म ‘पुष्पा पार्ट वन’ में भी दिख सकती है।
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इसलिए कालजयी फिल्म बनी ‘दीवार’
परवानी बाबी और निरूपा राय के दो किरदार कैसे हिंदी सिनेमा में महिला किरदारों के लिए टर्निंग प्वाइंट साबित हुए, इस पर चर्चा करने से पहले थोड़ी सी झलक आपको दे देते हैं, उस दौर के सामाजिक, राजनीतिक परिवर्तनों की। सिनेमा के छात्रों के लिए ये समझना बहुत जरूरी है कि किसी फिल्म को कालजयी फिल्म का दर्जा मिलने के लिए सबसे जरूरी है उसके कथानक का अपने निर्माण के समय की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक झलक देना। या कहें कि आने वाले समय में अगर किसी को उस वक्त का समाज, संबंध या संत्रास देखना हो तो संबंधित फिल्म उसके लिए संदर्भ बिंदु का काम कर सके। फिल्म ‘दीवार’ विश्व सिनेमा का भी संदर्भ बिंदु बरास्ते हॉन्गकॉन्ग बनी। दक्षिण की सारी भारतीय भाषाओं में तो इस फिल्म के रीमेक हुए ही, इसे पूर्वी एशिया के देशों ने हाथोंहाथ लपक लिया। एक ही मां के दो बेटों के कानून के दोनों तरफ आ खड़े होने के भारतीय फिल्मों ‘मदर इंडिया’ और ‘गंगा जमना’ के कथानक का जो शहरी विस्तार सलीम जावेद ने फिल्म ‘दीवार’ में दिया, वह इसी के साथ अंतर्राष्ट्रीय हो गया।
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कॉरपोरेट के यूनियनों में दखल का आइना
फिल्म ‘दीवार’ और ‘शोले’ की शूटिंग एक ही कालखंड में हुई। अमिताभ बच्चन दिन में शोले की शूटिंग करते और रात को ‘दीवार’ की। ‘शोले’ की शूटिंग खत्म हुई तो फिल्म ‘दीवार’ और फिल्म ‘कभी कभी’ की शूटिंग साथ साथ चलने लगी। फिल्म के निर्देशक यश चोपड़ा को डर लगा रहता कि कहीं एंग्री यंग मैन और कवि के किरदारों में अमिताभ बच्चन लोचा न कर लें लेकिन ऐसा हुआ नहीं। लोचा अमिताभ बच्चन के साथ इस फिल्म में क्या हो सकता था, उससे पहले बात उस समय देश में चल रहे उससे बड़े लोचे की। आजादी के तीस साल होने को थे और देश में भारत-चीन युद्ध और भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद बना देशभक्ति का माहौल धीरे धीऱे अपना असर खो रहा था। ट्रेड यूनियनों पर सरकार हावी हो रही थी। राष्ट्रीयकरण फैशन बन चुका था। बेरोजगारी अपने चरम पर थी। ये वो समय था जब केंद्र की कांग्रेस सरकार अपने विरोधियों को चुन चुनकर जेल पहुंचा रही थी। जे पी नारायण का ‘संपूर्ण क्रांति’ का नारा और भारतीय रेल में पहली बार हुई देशव्यापी हड़ताल ने देश में बढ़ते आक्रोश की झलक दिखा दी थी। याद करेंगे तो फिल्म ‘दीवार’ शुरू ही वहां से होती है जहां एक ट्रेड यूनियन नेता कॉरपोरेट के झांसे में आ जाता है। साथी उसका जीना मुश्किल कर देते हैं। वह मुंह छुपाकर भागता है। बेटा हाथ में लिखा पाता है, ‘मेरा बाप चोर है!’
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संदेश बिल्ला नंबर 786 का
ये देश की विरासत के पीढ़ी एकांतरण का समय था। रईसों ने अपने बेटों को विरासत में रईसी दी। तमाम नेताओं ने अपने बेटों को विरासत में भ्रष्टाचार दिया और जो जननेता थे, अत्याचारी का मुकाबला करने का साहस रखते थे, उनके बेटों को ये बताने की कोशिश की गई कि तुम्हारा बाप तो चोर है। एक पूरी पीढ़ी के भीतर ये गुस्सा बैठ रहा था कि उसकी पिछली पीढ़ी चोर कैसे हो गई? गुस्सा समाज के उन दबंगों के भीतर भी पनप रहा था जिनके काले धंधे सरकार एक एक कर बंद करवा रही थी। ‘दीवार’ का बिन बाप का बच्चा बड़ा होकर एक गोदी में काम पाता है। वह वहां पर सामान ढोता है। उस जमाने के चर्चित तस्कर हाजी मस्तान की जिंदगी का भी मुंबई का यही पहला चर्चित पड़ाव रहा। विजय फिल्म ‘दीवार’ में मुंबई के सबसे बड़े तस्कर सामंत का वर्चस्व उसके घर मे जाकर खत्म करता है। हाजी मस्तान ने भी ऐसा ही काम उस समय के सबसे दुर्दांत तस्कर बखिया के घर में घुसकर किया था। कहते तो ये भी हैं कि ये फिल्म हाजी मस्तान की ब्रांडिंग के लिए बनी फिल्म थी। लेकिन, हाजी मस्तान की जिंदगी से फिल्म की समानता बस गोदी और बखिया से आगे नहीं जाती। आगे फिल्म में मां है, मंदिर है, भाई है, पुल है और है बिल्ला नंबर 786 जो विजय को रहीम चाचा देते हैं। उस समय के सामाजिक तानेबाने का ये सबसे बड़ा जीता जागता सबूत है। सलीम-जावेद पर तोहमत कोई कितनी भी लगाए, लेकिन सच ये भी है कि उनके सिनेमा ने भारत के इस धर्मनिरपेक्ष तानेबाने को मजबूत करने में बहुत योगदान किया है।