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कॉप26 सम्मेलन : जलवायु न्याय पर नहीं बढ़ी बात, सरल भाषा में जानिए, पांच प्रमुख मुद्दों पर दुनिया को क्या मिला

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सालभर आपदाओं, तापमान वृद्धि और महामारी से संघर्ष के बीच आयोजित ग्लासगो जलवायु सम्मेलन से धरती की आबोहवा सुधारने को लेकर काफी उम्मीदें जताई जा रही थीं। लेकिन दो हफ्ते तक चली इस वैश्विक बैठक से दुनिया को अहम मुद्दों पर विफलता और निराशा ही हाथ लगी। जलवायु विशेषज्ञों के मुताबिक, कॉप26 ने भले ही जलवायु बदलाव के खतरों के मद्देनजर तात्कालिक कदम उठाने की जरूरत स्वीकार की हो, लेकिन ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन रोकने, आर्थिक रूप से कमजोर देशों के सहयोग और चीन पर लगाम लगाने जैसे अहम मुद्दों पर ठोस प्रतिबद्धताएं नदारद रहीं। उलटे सम्मेलन में अमीर और विकासशील देशों के बीच अविश्वास ज्यादा खुलकर सामने आ गया…

बड़ा सवाल… क्या ग्लासगो जलवायु समझौता धरती के तापमान में बढ़ोतरी को डेढ़ डिग्री से नीचे रखने में सफल हो पाएगा?
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट की महानिदेशक सुनीता नारायण की मानें तो, इस तथ्य को नहीं मिटाया जा सकता कि अमेरिका, यूरोपीय देश, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, जापान, रूस और चीन जैसे देश 70 फीसदी कार्बन स्पेस घेर चुके हैं। वहीं, 70% देशों को अभी विकसित होना है। जाहिर तौर पर उनका उत्सर्जन बढ़ेगा। इसके चलते तापमान वृद्धि से बचना मुश्किल है।

पांच प्रमुख मुद्दों पर दुनिया को क्या मिला
1. बड़े प्रदूषकों पर नियंत्रण नहीं
जानकारों का कहना है, जलवायु परिवर्तन को थामने के लिए जलवायु न्याय आधारशिला के रूप में होनी चाहिए। इसमें कोई दोराय नहीं है कि विश्व की 70 फीसदी आबादी को अभी अपने विकास के लिए कार्बन स्पेस की जरूरत है और उन्हें विकसित होने से नहीं रोका जा सकता। कॉप-26 को इसमें समानता लाते हुए कम कार्बन उत्सर्जन के रास्ते खोलने की दिशा में कदम बढ़ाना चाहिए था।

लेकिन सम्मेलन में बहुत कम प्रति व्यक्ति कार्बन फुटप्रिंट वाले गरीब देशों पर पेरिस समझौते के पालन के लिए जोर डालना न सिर्फ उन्हें विकास से रोकना बल्कि उनका मखौल उड़ाने जैसा है। मसलन, विकासशील भारत के 2070 तक नेट जीरो के लक्ष्य की आलोचना की गई। असल में ऐतिहासिक रूप से बड़े प्रदूषक देशों को कम उत्सर्जन का भार अपने कंधों पर लेना सुनिश्चित करना चाहिए था, लेकिन फिलहाल वे अभी बहुत कम भूमिका निभा रहे हैं।

2. नेट जीरो लक्ष्य पर मामूली प्रगति
नेट जीरो के बजाय इस दशक के अंत तक उत्सर्जन कटौती पर फोकस होना चाहिए था। सेवन प्लस वन (अमेरिका, यूरोप, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, जापान, रूस और चीन) देशों से उत्सर्जन कटौती जलवायु परिवर्तन रोकने की चाबी है। ताकि विकास की ओर बढ़ते अन्य देशों की कार्बन स्पेस तक पहुंच बढ़े।

3. जलवायु वित्त पर कदम नाकाफी
पेरिस समझौता कहता है कि अमीर राष्ट्रों को 2025 तक गरीब देशों को 100 अरब डॉलर सहायता देनी है। लेकिन यह धन प्रवाह अब तक भ्रामक है। केवल जर्मनी, नॉर्वे और स्वीडन ही अपना हिस्सा दे रहे हैं। जलवायु बदलाव रोकने में पैसा अहम है लेकिन इसके इस्तेमाल में पारदर्शिता भी उतनी ही जरूरी है।

4. कोयले पर कवायद रही विफल
विकासशील राष्ट्रों को आर्थिक तरक्की के लिए कोयले की जरूरत है। उन पर इसका इस्तेमाल रोकने का दबाव बनाया जा रहा है। कॉप-26 के समझौता ड्राफ्ट में अंतिम वक्त पर भारत व चीन के हस्तक्षेप के बाद ‘फेज-आउट’ की जगह ‘फेज-डाउन’ का इस्तेमाल किया गया।

5. चीन से निपटने पर यथास्थिति बरकरार
वैश्विक मंच से चीन को कटघरे में खड़ा करना चाहिए था। ड्रैगन ने दुनिया का सबसे बड़ा उत्सर्जक होने के बावजूद कार्बन डाइऑक्साइड घटाने के लक्ष्य नहीं दिए। यह अकेले इस दशक के लिए शेष 33 फीसदी कार्बन बजट भी इस्तेमाल कर लेगा। कोयले से बिजली उत्पादन न घटाने तक चीन कार्बन तटस्थ नहीं होगा। भले ही चीन कह रहा हो कि वह विदेश में कोयला पावर प्लांट नहीं लगाएगा, लेकिन अपने घर को लेकर वह चुप है। जानकारों के मुताबिक, असल में चीन को विकाशील देशों के समूह से हटाया जाना चाहिए।

नुकसान और क्षतिपूर्ति पर भी नहीं बढ़े कदम
इस मुद्दे पर पेरिस समझौते में गहरी खामियां हैं। नुकसान और क्षतिपूर्तियों को मुआवजा या दायित्व के रूप में नहीं माना जाता। विशेषज्ञों का कहना है कि इस पर फिर से काम करने की जरूरत है। कॉप-26 में इसे स्थायी एजेंडा बनाकर पीड़ित देशों को उचित मुआवजा दिया जाना चाहिए था।

सहमति के बिंदु…पर क्या ये पर्याप्त है

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