सार
भारत में प्राचीन काल से पहला सुख निरोगी काया को बताया गया लेकिन आज हर काया को कोई न कोई रोग लगा है। हम ज्यादा जी रहे हैं, पर यह जीवन अब सेहतमंद नहीं रहा। आरामदायक जीवनशैली से उपजी बीमारियों ने घेर लिया है। अध्ययन बताते हैं कि डायबिटीज, बीपी और हाइपरटेंशन जैसे रोग जीवन के चौथे-पांचवें दशक में पहुंचे लोगों के जिंदगी का हिस्सा बन गए हैं। कोरोना महामारी के दौरान कई सर्वेक्षणों में लोगों ने माना है कि खराब जीवनशैली ने उन्हें संक्रमण की ओर धकेला। आज विश्व स्वास्थ्य दिवस पर मौजूदा सेहत हालात पर एक नजर…
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विस्तार
सबसे ज्यादा मौतें हृदय रोग से
बीते 30 वर्षों में हृदय रोगियों की तादाद दोगुनी हो गई है। हृदय रोग कभी पांचवें पायदान पर था लेकिन अब यह देश में सबसे बड़ी बीमारी बन गया है। एक अध्ययन के मुताबिक, भारत में बीते तीन दशकों के दौरान लोगों की स्वास्थ्य क्षति में सबसे बड़ा योगदान हृदय, सीओपीडी, डायबिटीज और पक्षाघात जैसे रोगों का रहा है।
जीवन शैली के कारण होने वाली बीमारियों ने 35 साल तक की युवा आबादी को शहर ही नहीं, गांवों तक तेजी से अपनी गिरफ्त में लिया है और यह मौत का सबसे बड़ा कारण बन गई हैं। इसका असर कोरोना महामारी में साफ देखने को मिला, जिसमें जान गंवाने वाले आधे भारतीय पहले से ही डायबिटीज और हाइपरटेंशन जैसे रोगों के शिकार थे।
सिर्फ हृदय रोग और डायबिटीज के चलते इस दशक के अंत तक भारत को 6.2 खरब डॉलर का आर्थिक नुकसान झेलना पड़ेगा। ये बीमारियां न सिर्फ लोगों की उत्पादकता घटा देती हैं, बल्कि उनके स्वास्थ्य देखभाल पर होने वाले खर्च में भी भारी बढ़ोतरी हो जाती है।
वैज्ञानिकों की एक वैश्विक टीम के मुताबिक, पुराने रोगों की मौजूदगी और उच्च रक्तचाप, डायबिटीज व वायु प्रदूषण से होने वाली बीमारियों ने दुनियाभर की आबादी को कोरोना जैसी महामारी के प्रति पहले के मुकाबले ज्यादा कमजोर बना दिया है।
बढ़ते शहरीकरण ने हमारी जीवन शैली को जड़ और खान-पान को खराब कर दिया है। इसके चलते जीवन रुग्ण हो गया है। हमें लंबी आयु तक स्वस्थ और अच्छी प्रतिरक्षा के साथ जीने के लिए जागरूकता की जरूरत है। अच्छे स्वास्थ्य का कोई शॉर्टकट नहीं है। – डॉ. वीके बहल, कार्डियोलॉजिस्ट
डब्ल्यूएचओ ने कहा, निजी से सरकारी हाथों में आए देश की स्वास्थ्य सेवाएं
- सरकारी हाथों से मिलेगा अच्छा स्वास्थ्य : डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के मुताबिक, देश में अभी 70 फीसदी ओपीडी सेवाएं, 58 फीसदी भर्ती मरीज और 90 फीसदी दवाएं और जांच निजी हाथों में हैं। अच्छा इलाज आम आदमी की पहुंच से बाहर है। भारत में सरकारी स्तर पर स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार की जरूरत है।
- जीडीपी का डेढ़ फीसदी खर्च, जरूरत तीन फीसदी की : सार्वजनिक स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च दुनिया में काफी कम है। हम अभी सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का सिर्फ 1.5 फीसदी स्वास्थ्य पर खर्च करते हैं, जबकि जरूरत तीन फीसदी की है। यूरोपीय देश जीडीपी का आठ फीसदी तक खर्च करते हैं।
22 साल बढ़ी भारतीयों की उम्र, पर जीवन शैली से जुड़े रोगों के मरीज हो गए दोगुने
- गैर संक्रामक रोगों से मरने वालों की तादाद हुई 50% : दक्षिण एशिया क्षेत्र में काफी लोगों के जीवन का एक बड़ा हिस्सा खराब सेहत की भेंट चढ़ रहा है और गैर-संक्रामक (एनसीडी) रोग इसकी बड़ी वजह बनकर उभरे हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि भारत के स्वास्थ्य तंत्र पर 58 फीसदी रोग भार गैर-संक्रामक रोगों के कारण है, जो 1990 में 29 फीसदी था। एनसीडी के कारण अकाल मौतों की तादाद पहले सिर्फ 22 फीसदी थी, जो अब दोगुने से भी ज्यादा बढ़कर 50 फीसदी हो गई है।
2019 में एक शोध में पता लगा था कि देश में जान लेने वाले शीर्ष पांच कारणों में वायु प्रदूषण (16.7 लाख मौतें), उच्च रक्तचाप (14.7 लाख मौतें), तंबाकू (12.3 लाख), खराब भोजन (10.18 लाख) और उच्च ब्लड शुगर (10.12 लाख) शामिल हैं।
हम 70 साल जीने लगे, 10 हजार लोगों पर महज नौ डॉक्टर
1970 में औसत उम्र 47.7 साल थी, जो 2020 में बढ़कर 69.6 साल हो गई है। डॉक्टर और नर्सों का अनुपात तुलनात्मक रूप से सुधरा है पर व्यापक रूप से हालात अभी कमजोर हैं। 10 हजार लोगों पर नौ डॉक्टर और 24 नर्सें ही हैं। इतने ही लोगों पर महज नौ फार्मासिस्ट हैं।