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बांग्लादेश : ‘शुक्रिया’ अदा करने त्रिपुरा पहुंचीं पूर्व पीएम ताजुद्दीन अहमद की बेटी सीमिन होसैन

एजेंसी, सोनामुरा (त्रिपुरा)
Published by: Kuldeep Singh
Updated Mon, 13 Dec 2021 04:56 AM IST

सार

1971 में बांग्लादेश की आजादी की जंग के समय के प्रधानमंत्री रहे ताजुद्दीन अहमद की बेटी सीमिन होसैन रिमी परिवार के साथ जान बचकर किसी तरह त्रिपुरा पहुंची थीं। तब केवल नौ वर्ष की रही रिमी अब 60 साल की हैं। उन दिनों को याद कर शुक्रिया अदा करने के लिए वे फिर त्रिपुरा लौटी हैं।

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1971 में बांग्लादेश की आजादी की जंग के समय खून की प्यासी पाकिस्तानी फौज से बचकर अस्थायी सरकार के प्रधानमंत्री रहे ताजुद्दीन अहमद की बेटी सीमिन होसैन रिमी परिवार के साथ जान बचकर किसी तरह त्रिपुरा पहुंची थीं। तब केवल नौ वर्ष की रही रिमी अब 60 साल की हैं। उन दिनों को याद कर शुक्रिया अदा करने के लिए वे फिर त्रिपुरा लौटी हैं। बांग्लादेश की आजादी और दोनों देशों की दोस्ती की गोल्डन जुबली पर नई दिल्ली में आयोजित कार्यक्रम में भाग लेने के बाद वे त्रिपुरा पहुंचीं।

1971 के युद्ध के दौरान सीमिन होसैन रिमी और परिजनों ने शरण लेकर बचाई थी अपनी जान
छोटे से शहर सोनामुरा की सीमा बांग्लादेश के कोमिला जिले से मिलती है। यहां युद्ध के दौरान पूर्वी पाकिस्तान से आए हजारों लोगों को शरण दी गई थी। यही नहीं, मुक्ति वाहिनी के लिए प्रशिक्षण शिविर और अस्पताल भी बनाया गया था। अब बांग्लादेश में संसद सदस्य रिमी के पिता की गिनती बांग्लादेश के उदय के प्रमुख नायकों में होती है। उथल-पुथल भरे उन दिनों को याद करती हुई वे कहती हैं, पूर्वी पाकिस्तान से आए लोगों को शरण देने के लिए उन दिनों स्कूल बंद कर दिए गए थे। मुझे यकीन नहीं हो रहा कि मैं उस समय के उपमंडल अधिकारी के बंगले के सामने खड़ी हूं, जिसमें हमने शरण ली थी। मेरे आंसू अब खुशी के हैं।

वे बताती हैं, अवामी लीग ने युद्ध में देश के लोगों का नेतृत्व करने के लिए उनके पिता को भारत भेजा तो उनकी मां सईदा जोहुरा बेगम अपने चार छोटे बच्चों के साथ पाकिस्तानी सेना से बचने के लिए छिपती फिर रही थीं। भारत आने के लिए वे लगातार साधन बदल रही थीं। उनके परिवार ने ढाका से बोक्सानगर के बीच की 80 किलोमीटर दूरी सात दिन में पूरी की।

पेयजल के लिए भी तरसे पानी में रक्तरंजित लाशें
रिमी बताती हैं कि मां, बहनों और छोटे भाई के साथ उन्होंने पानी के रास्ते यात्रा शुरू की। उस समय पीने के लिए एक बूंद तक पानी नहीं था। इस पर उन्होंने एक मग में भरकर नीचे से पानी उठाया और पी लिया। पांच मिनट बाद देखा कि जहां से उन्होंने पानी लिया था, वहां आसपास पानी में खून से सनी लाशें तैर रही थीं।

इसी तरह रास्ते में वे परिवार के साथ एक खुली बोट में थीं। अचानक पाकिस्तान का एक सैनिक पुल पर खड़ा दिखा। उसने बोट पर फायरिंग शुरू कर दी। इससे बोट के कई यात्री मारे गए, लेकिन सौभाग्य से उनका परिवार सुरक्षित बच गया। रास्ते में एक बार तो उन्हें पाकिस्तानी सेना के लिए काम करने वाले योद्धाओं राजाकरों ने पकड़ लिया। काफी मिन्नतों के बाद वे रिश्वत लेकर उन्हें बॉक्सानगर पहुंचाने के लिए राजी हो गए।

विस्तार

1971 में बांग्लादेश की आजादी की जंग के समय खून की प्यासी पाकिस्तानी फौज से बचकर अस्थायी सरकार के प्रधानमंत्री रहे ताजुद्दीन अहमद की बेटी सीमिन होसैन रिमी परिवार के साथ जान बचकर किसी तरह त्रिपुरा पहुंची थीं। तब केवल नौ वर्ष की रही रिमी अब 60 साल की हैं। उन दिनों को याद कर शुक्रिया अदा करने के लिए वे फिर त्रिपुरा लौटी हैं। बांग्लादेश की आजादी और दोनों देशों की दोस्ती की गोल्डन जुबली पर नई दिल्ली में आयोजित कार्यक्रम में भाग लेने के बाद वे त्रिपुरा पहुंचीं।

1971 के युद्ध के दौरान सीमिन होसैन रिमी और परिजनों ने शरण लेकर बचाई थी अपनी जान

छोटे से शहर सोनामुरा की सीमा बांग्लादेश के कोमिला जिले से मिलती है। यहां युद्ध के दौरान पूर्वी पाकिस्तान से आए हजारों लोगों को शरण दी गई थी। यही नहीं, मुक्ति वाहिनी के लिए प्रशिक्षण शिविर और अस्पताल भी बनाया गया था। अब बांग्लादेश में संसद सदस्य रिमी के पिता की गिनती बांग्लादेश के उदय के प्रमुख नायकों में होती है। उथल-पुथल भरे उन दिनों को याद करती हुई वे कहती हैं, पूर्वी पाकिस्तान से आए लोगों को शरण देने के लिए उन दिनों स्कूल बंद कर दिए गए थे। मुझे यकीन नहीं हो रहा कि मैं उस समय के उपमंडल अधिकारी के बंगले के सामने खड़ी हूं, जिसमें हमने शरण ली थी। मेरे आंसू अब खुशी के हैं।

वे बताती हैं, अवामी लीग ने युद्ध में देश के लोगों का नेतृत्व करने के लिए उनके पिता को भारत भेजा तो उनकी मां सईदा जोहुरा बेगम अपने चार छोटे बच्चों के साथ पाकिस्तानी सेना से बचने के लिए छिपती फिर रही थीं। भारत आने के लिए वे लगातार साधन बदल रही थीं। उनके परिवार ने ढाका से बोक्सानगर के बीच की 80 किलोमीटर दूरी सात दिन में पूरी की।

पेयजल के लिए भी तरसे पानी में रक्तरंजित लाशें

रिमी बताती हैं कि मां, बहनों और छोटे भाई के साथ उन्होंने पानी के रास्ते यात्रा शुरू की। उस समय पीने के लिए एक बूंद तक पानी नहीं था। इस पर उन्होंने एक मग में भरकर नीचे से पानी उठाया और पी लिया। पांच मिनट बाद देखा कि जहां से उन्होंने पानी लिया था, वहां आसपास पानी में खून से सनी लाशें तैर रही थीं।

इसी तरह रास्ते में वे परिवार के साथ एक खुली बोट में थीं। अचानक पाकिस्तान का एक सैनिक पुल पर खड़ा दिखा। उसने बोट पर फायरिंग शुरू कर दी। इससे बोट के कई यात्री मारे गए, लेकिन सौभाग्य से उनका परिवार सुरक्षित बच गया। रास्ते में एक बार तो उन्हें पाकिस्तानी सेना के लिए काम करने वाले योद्धाओं राजाकरों ने पकड़ लिया। काफी मिन्नतों के बाद वे रिश्वत लेकर उन्हें बॉक्सानगर पहुंचाने के लिए राजी हो गए।

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