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अफगानिस्तान में तालिबान: पहले पनपा, खत्म हुआ और फिर वापसी

अमर उजाला रिसर्च टीम, नई दिल्ली
Published by: Jeet Kumar
Updated Tue, 17 Aug 2021 06:35 AM IST

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1980 के दशक की बात है अफगानिस्तान में सोवियत संघ की सेना आने के बाद कई मुजाहिदीन गुट सेना और सरकार के खिलाफ लड़ रहे थे। तब इन मुजाहिदीनों को अमेरिका और पाकिस्तान से मदद मिलती थी, लेकिन 1989 में सोवियत सेना की वापसी के बाद स्थानीय गुट आपस में ही भिड़ने लगे।

ऐसे ही एक स्थानीय गुट के नेता मुल्ला मोहम्मद उमर ने कुछ पश्तून युवाओं के साथ आंदोलन शुरू किया, जिसे पश्तो भाषा में कहा गया- तालिबान। 

मुल्ला के नेतृत्व में मदरसों में तालिबान लड़ाके तैयार किए जाने लगे। सऊदी अरब तालिबान को आर्थिक मदद देता था। 

सितंबर 1995 में उन्होंने ईरान की सीमा से सटे हेरात पर कब्जा किया। सालभर बाद ही तालिबान काबुल पर काबिज हो गए। 1998 शुरू होते-होते 90 फीसदी अफगानिस्तान तालिबान के प्रभुत्व आ गया। तत्कालीन राष्ट्रपति बुरहानुद्दीन रब्बानी को सत्ता से हटाकर अफगानिस्तान को इस्लामी अमीरात घोषित कर दिया। 

लोकप्रिय हुआ, पर कट्टरपंथ से आजिज आ गए लोग 
शुरुआत में तालिबान भ्रष्टाचार पर लगाम, सड़क निर्माण और कारोबारी सुविधाएं मुहैया कराकर लोगों में लोकप्रिय हुए। लेकिन, शरिया कानून पर जोर और सजा के कट्टरपंथी तरीकों से लोग आजिज आ गए। 

  • मसलन, पुरुषों के लिए दाढ़ी और महिलाओं को बुर्का अनिवार्य कर दिया गया। टेलीविजन, संगीत-सिनेमा पर पाबंदी लग गई। 10 साल से बड़ी लड़कियों के स्कूल जाने पर रोक लगा दी। 2001 में खत्म हुआ शासन 2001 में बामियान में बुद्ध की प्रतिमा नष्ट करने पर तालिबान दुनिया की नजरों में आया। 
  • 2001 में अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले के बाद तो पूरी दुनिया उसकी दुश्मन हो गई। 7 अक्तूबर 2001 को अमेरिका के नेतृत्व में सैन्य गठबंधन ने अफगानिस्तान पर हमला कर तालिबान शासन खत्म कर दिया। 
  • बर्बाद हुए 75 लाख करोड़ अमेरिका ने दो दशकों में एक लाख करोड़ डॉलर यानी 75 लाख करोड़ रुपये खर्च किए हैं। इसमें 66 लाख करोड़ रुपये अफगान सेना को ट्रेनिंग देने और हथियार मुहैया कराने में खर्च किए गए।

विस्तार

1980 के दशक की बात है अफगानिस्तान में सोवियत संघ की सेना आने के बाद कई मुजाहिदीन गुट सेना और सरकार के खिलाफ लड़ रहे थे। तब इन मुजाहिदीनों को अमेरिका और पाकिस्तान से मदद मिलती थी, लेकिन 1989 में सोवियत सेना की वापसी के बाद स्थानीय गुट आपस में ही भिड़ने लगे।

ऐसे ही एक स्थानीय गुट के नेता मुल्ला मोहम्मद उमर ने कुछ पश्तून युवाओं के साथ आंदोलन शुरू किया, जिसे पश्तो भाषा में कहा गया- तालिबान। 

मुल्ला के नेतृत्व में मदरसों में तालिबान लड़ाके तैयार किए जाने लगे। सऊदी अरब तालिबान को आर्थिक मदद देता था। 

सितंबर 1995 में उन्होंने ईरान की सीमा से सटे हेरात पर कब्जा किया। सालभर बाद ही तालिबान काबुल पर काबिज हो गए। 1998 शुरू होते-होते 90 फीसदी अफगानिस्तान तालिबान के प्रभुत्व आ गया। तत्कालीन राष्ट्रपति बुरहानुद्दीन रब्बानी को सत्ता से हटाकर अफगानिस्तान को इस्लामी अमीरात घोषित कर दिया। 

लोकप्रिय हुआ, पर कट्टरपंथ से आजिज आ गए लोग 

शुरुआत में तालिबान भ्रष्टाचार पर लगाम, सड़क निर्माण और कारोबारी सुविधाएं मुहैया कराकर लोगों में लोकप्रिय हुए। लेकिन, शरिया कानून पर जोर और सजा के कट्टरपंथी तरीकों से लोग आजिज आ गए। 

  • मसलन, पुरुषों के लिए दाढ़ी और महिलाओं को बुर्का अनिवार्य कर दिया गया। टेलीविजन, संगीत-सिनेमा पर पाबंदी लग गई। 10 साल से बड़ी लड़कियों के स्कूल जाने पर रोक लगा दी। 2001 में खत्म हुआ शासन 2001 में बामियान में बुद्ध की प्रतिमा नष्ट करने पर तालिबान दुनिया की नजरों में आया। 
  • 2001 में अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले के बाद तो पूरी दुनिया उसकी दुश्मन हो गई। 7 अक्तूबर 2001 को अमेरिका के नेतृत्व में सैन्य गठबंधन ने अफगानिस्तान पर हमला कर तालिबान शासन खत्म कर दिया। 
  • बर्बाद हुए 75 लाख करोड़ अमेरिका ने दो दशकों में एक लाख करोड़ डॉलर यानी 75 लाख करोड़ रुपये खर्च किए हैं। इसमें 66 लाख करोड़ रुपये अफगान सेना को ट्रेनिंग देने और हथियार मुहैया कराने में खर्च किए गए।

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