ओवर द टॉप (ओटीटी) वीडियो स्ट्रीमिंग सेवाओं ने एक बड़ा काम तो ये किया है कि तमाम ऐसे कलाकारों को भी वापस मुख्यधारा में ला दिया है, जिनकी तरफ मुख्यधारा का सिनेमा बनाने वालों का ध्यान कम ही जाता था। बड़ा प्रशंसक वर्ग, बरसों की फैन फॉलोइंग और देश के छोटे शहरों में अब भी कायम ब्रांड वैल्यू ने बीते दिनों के बड़े सितारों के करियर का पुनर्जीवन ओटीटी के जरिये किया है। कभी ‘सैक्रेड गेम्स’ और तमाम दूसरी सेक्स से लबरेज कहानियों पर फिदा रहने वाले अंतर्राष्ट्रीय ओटीटी नेटफ्लिक्स को भारतीय दर्शकों ने उन कहानियों तक पहुंचने के लिए मजबूर कर दिया है, जो उनके आसपास की कहानियां हैं। ऐसी ही एक कहानी ‘अरण्यक’ से लोकप्रिय अभिनेत्री रवीना टंडन अपना ओटीटी डेब्यू करने जा रही हैं। करियर, किरदार और सामाजिक बदलाव पर ‘अमर उजाला’ के सलाहकार संपादक पंकज शुक्ल की रवीना टंडन से एक खास बातचीत।
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Sunday Interview: रवीना टंडन की दो टूक, ‘महिलाओं को अब भी दफ्तर से आकर अपना खाना खुद पकाना होता है’
30 साल पहले आपने जिस सिप्पी घराने की फिल्म से बड़े परदे पर कदम रखा, उसी घराने के जरिये ही आपका ओटीटी डेब्यू हो रहा है। लेकिन, इस नए माध्यम को लेकर कहीं कोई दुविधा या शंका तो नहीं रही?
मेरा मानना है कि लगातार काम करते रहने से कलाकार का विकास तो होता ही है, एक इंसान के रूप में भी प्रौढ़ता आती है। हमारी सोच विकसित होती है और कलाकार फिर ऐसे किरदार तलाशता है जो उसके हुनर को उसकी सीमाओं से आगे ले जा सके। रोहन सिप्पी जब मेरे पास ‘अरण्यक’ के लेखक और निर्देशक को लेकर आए तो मेरे दिल से आवाज आई कि ये किरदार करना चाहिए। ऐसे किरदार हमें अपनी सीमाएं तोड़ने की हिम्मत देते हैं। पहले जो हम कर चुके हैं, उससे कुछ अलग करने का हौसला देते हैं।
सिनेमा खासतौर से हिंदी सिनेमा को नायक का माध्यम माना जाता है। आपको लगता है कि ओटीटी के आने के बाद से नायिकाओं की स्थिति में बदलाव आया है?
शायद, मैं इस बात से उतना सहमत नहीं हूं क्योंकि हमारी बहुत सारी फिल्में ऐसी रही हैं, ऐसी अभिनेत्रियां रहीं हैं जिन्होंने बहुत ही कामयाब महिला प्रधान फिल्में की हैं। हां, ऐसी फिल्मे एक दशक में दो तीन ही बनती थीं। इसकी वजह है फिल्मों की समय सीमा। किसी किरदार का संघर्ष, उसके भीतर की भावनात्मक उथल पुथल को फिल्म में शायद उतना विस्तार से दिखाना संभव नहीं हो पाता है।
और, ये समय सीमा ओटीटी में नहीं है…
हां, ओटीटी का ये फायदा हुआ है। यहां आप बंधकर काम नहीं करते। यहां किरदारों को उनकी उड़ान देने की आजादी है। किसी महिला पात्र के पारिवारिक और व्यावसायिक दोनों पहलुओं को इसमें विस्तार मिलता है। और, शायद यही वजह है कि ओटीटी पर इतने ज्यादा महिला प्रधान कार्यक्रम या वेब सीरीज बन रहे हैं। ओटीटी के आने से महिला किरदारों की दृश्यता बढ़ी है, इसमें कोई दो राय नहीं है। ओटीटी ने एक और बदलाव किया है और वह है दर्शकों की सोच का। पहले विदेशी फिल्में लोग सिर्फ फिल्म समारोहों में देख सकते थे और अब तो ना जाने कहां कहां का सिनेमा घर में ही मौजूद है। इस बदलाव से दर्शकों की सोच बदली है। नायिकाओं के क्षितिज को भी ओटीटी के आने से विस्तार मिला है।
‘अरण्यक’ को नेटफ्लिक्स अपनी मनोरंजन सामग्री का एक ऐसा मोड़ कह रहा है, जहां से उसकी कहानियों में भारत और दिखेगा। आपको भी इस सीरीज को करते हुए ऐसा ही लगा क्या?
इस बात से मैं भी सहमत हूं। कलाकार की जिम्मेदारी होती है कि वह अपने किरदार के जरिये समाज को क्या दिखाने जा रहा है, इस पर भी नजर रखें। मैंने तो पहले भी अपने करियर में ऐसे किरदार चुने जिनमें महिला उत्थान या महिला सशक्तिकरण की बात होती थी। ‘दमन’ में हमने घरेलू हिंसा के बारे में बात की। ‘मातृ’ में बलात्कार का मुद्दा था। ‘शूल’ भी पुलिस में व्याप्त भ्रष्टाचार की ही बात करती है। ‘अरण्यक’ में भी एक दुविधा है। ये दुविधा उन सारी कामकाजी महिलाओं की है जो घर भी अच्छे से चलाना चाहती हैं और अपना करियर भी।