आयुष्मान खुराना
– फोटो : अमर उजाला ब्यूरो, मुंबई
आयुष्मान खुराना को बड़े परदे पर सफर शुरू किए अभी दशक भी नहीं बीता है और हिंदी सिनेमा के दर्शक उनके सिनेमा की राह तकने लगे हैं। आयुष्मान को अपनी इस जिम्मेदारी का एहसास है और वह मानते हैं कि दर्शकों की सोच भी तेजी से बदल रही है, लेकिन अब भी बहुत कुछ करना बाकी है। फिल्म ‘चंडीगढ़ करे आशिकी’ में आयुष्मान ने एक और ऐसे विषय पर बनी फिल्म स्वीकारी जिसे समाज में अब भी वर्जित विषय माना जाता है। आयुष्मान कहते हैं कि ये उनके करियर की सबसे रिस्की (जोखिम भरी) फिल्म है। आयुष्मान खुराना से ये एक्सक्लूसिव बातचीत की ‘अमर उजाला’ के सलाहकार संपादक पंकज शुक्ल ने।
आयुष्मान, दर्शकों को चौंकाने वाले विषयों का चयन और इस चयन के लिए इतनी ऊर्जा कहां से पाते हैं आप?
हमारा देश ही बहुत ही पेचीदा है। मुझे लगता है कि हमारे देश में ऐसे बहुत सारे विषय हैं, ऐसी वर्जित धारणाएं हैं जिन पर हम खुले में बात नहीं कर पाते। और, इन्हीं विषयो को हम किसी पारंपरिक परिवार में डाल दें तो वहां एक टकराव पैदा हो जाता है, और फिल्म का एक विषय बन जाता है। फिर भी, अभी हमें काफी आगे जाना है। प्रगतिशील बनना है। कई मुद्दों पर बात होनी है। और, सिनेमा के जरिये अगर बात हो तो उससे बढ़िया कुछ नहीं होता।
आयुष्मान खुराना
– फोटो : अमर उजाला ब्यूरो, मुंबई
‘विकी डोनर’ ने बातचीत का ये सिलसिला शुरू किया लेकिन ‘चंडीगढ़ करे आशिकी’ तक आते आते फिल्म की रिलीज से पहले इसकी बात ही बंद हो गई, मुझे लगता है कि अगर इसके विषय पर भी बात होती तो फिल्म का नतीजा कुछ और होता..
देखिए ये फैसला फिल्म के निर्देशक अभिषेक कपूर का था, फिल्म के निर्माताओं का था। वे लोग फिल्म के विषय को रिलीज से पहले नहीं खोलना चाहते थे। दरअसल बात ये भी हुई थी कि जब मेरी फिल्म ‘शुभ मंगल ज्यादा सावधान’ रिलीज हुई तो उस समय कुछ लोग इस फिल्म का ट्रेलर देखने के बाद फिल्म देखने ही नहीं गए। तमाम छोटे शहरों से मुझे फीडबैक मिला। हमने बातचीत भी की। लोगों ने कहा कि हम पिक्चर देखने इसलिए नहीं गए कि हमने ट्रेलर में दो लड़कों को एक दूसरे का चुंबन करते देख लिया। मुझे ये बात खटक गई थी। मुझे लगा कि हमारे बीच अब भी ये बाधा आती है कि इन विषयों को अगर खुलकर हम ट्रेलर में दिखा दें तो दिक्कत हो जाती है। इस बार हमने ये ट्रेलर में नहीं दिखाया। हमने सोचा कि हम एक साधारण प्रेम कहानी का ट्रेलर बनाते है और फिल्म देखकर लोग जानेंगे कि मुद्दा क्या है।
जहां तक मुझे पता है ये फिल्म दिल्ली की एक महिला की दो किशोरवय बेटों के लिंग परिवर्तन कराकर बेटियां बनने पर आधारित है जिनका नाम भी फिल्म के क्रेडिट्स में शामिल है..
जी हां, बिल्कुल ये उनकी बेटियों से मिलती जुलती कहानी है और ये कहानी उन्हीं से प्रेरित हुई है। लेकिन, हमारे देश में बहुत से ऐसे लड़के लड़कियां हैं जो अपना सर्जरी के जरिये अपना लिंग परिवर्तन करवा चुके हैं और अब जो वह चाहते हैं, अंदर से जैसा वह महसूस करते थे, वैसे जी रहे हैं।
आयुष्मान खुराना
– फोटो : अमर उजाला ब्यूरो, मुंबई
समावेशी समाज में सबको साथ लेकर चलना जरूरी है। मैं समझ सकता हूं जब पंकज शर्मा बॉबी डार्लिंग बने होंगे तो कितनी दिक्कतों का सामना करना पड़ा होगा..
उस दौरान तो उनके लिए बहुत मुश्किल रहा होगा। हमारा समाज तो अब बदला है कि कम से कम इनका मजाक नहीं उड़ाया जाता। नहीं तो हमारी फिल्मों में ही बीस, तीस साल पहले तक इनका बहुत मजाक उड़ाया गया है। लेकिन, समाज अब और परिपक्व हो चुका है। और देखा जाए तो पंकज शर्मा की कहानी भी तब कितनी अलग रही होगी कि उन्होंने ऑपरेशन के पैसे भी न जाने कहां कहां से जुटाए होंगे। बहुत महंगे ऑपरेशन होते हैं ये। जान पर खेलकर ये फैसला करना होता है। आसान काम नहीं है।
आपकी नई फिल्म का जो लब्बोलुआब मुझे समझ आया है वह यही है कि हमारे समाज में जो हाशिये पर पड़े लोग हैं उनका दर्द समझने की अब जरूरत है, उनका समय आ गया है..
बिल्कुल सही बात है कि उस दर्द को समझने की अब जरूरत आ गई है और दुख की बात तो ये है कि लोगों को इस बारे में पता ही नहीं है। ट्रांस कम्युनिटी के बारे में तो फिर भी पता होगा लेकिन जैसे मैं अपनी इमारत के सुरक्षाकर्मियों से बात कर रहा था कि अगर मान लो कोई एक लड़का है। उसको लगता है कि वह अंदर से लड़की है। तो, क्या आपको पता है कि वह अपना शरीर बदलकर लड़की बन सकते हैं। वॉचमैन मेरी शक्ल देख रहा था कि कैसी बातें कर रहे हो, सर। उसको पता ही नहीं है कि ऐसा कुछ भी हो रहा है दुनिया में।
आयुष्मान खुराना, ताहिरा कश्यप
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मेरा मानना है कि ये शिक्षा की कमी है..
जी हां, शिक्षा की कमी है, जागरूकता की कमी है। हमारा देश अलग अलग दिशाओं में जा रहा है। एक तबका है जो एक साल में 10 साल आगे बढ़ गया। एक तबका है जो पिछले दो साल में और 10 साल पीछे चला गया है। दोनों को समान जगह पर लाना जरूरी है और सिनेमा से बढ़कर ये काम और कोई नहीं कर सकता है।
एक रचनाशील इंसान की ये जिम्मेदारी है कि वह समाज में सकारात्मक बदलाव भी लेकर आए। आपने अभी एक इंटरव्यू में कहा कि आप कहानी चुनते समय बॉक्स ऑफिस नतीजों पर ध्यान नहीं देते। जब ‘स्पाइडरमैन नो वे होम’ सिर्फ एडवांस बुकिंग में 18 करोड़ रुपये कमा रही हो तो क्या तब भी बॉक्स ऑफिस पर नजर नहीं रखनी चाहिए?
देखिए, अच्छी बात ये है कि लोग सिनेमा जा रहे हैं। मैं इसको सकारात्मक नजरिये से देखूंगा कि लोग भर भर के सिनेमा में आ रहे हैं ये अच्छी बात है। ये बात मेरे संज्ञान में आई है कि अब सिनेमाघर में जाने के लिए जिन फिल्मों का लोग चयन करेंगे वह एक पारिवारिक मनोरंजक फिल्म होनी चाहिए। जो ऐसी फिल्में नहीं है वे ओटीटी पर देखी जा सकती है। दर्शकों में ये मानसिकता बन चुकी है।
आयुष्मान खुराना, अमिताभ बच्चन
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आयुष्मान खुराना की फिल्म से अब उम्मीद ये रहती है कि इसमे कुछ ऐसा दिखेगा जो पहले कहीं नहीं दिखा, क्या इसका भी दबाव रहता है कहानी चुनते समय?
जी, दबाव तो हमेशा रहेगा क्योंकि ये फिल्में चयन करना बहुत मुश्किल है। सौ स्क्रिप्ट मैं पढ़ता हूं तो एक स्क्रिप्ट मुझे अच्छी मिलती है। मेरा ये मानना है कि एक अच्छी स्क्रिप्ट कहीं से भी आ सकती है। एक अच्छी फिल्म कोई भी बना सकता है। मेरी आधी से ज्यादा फिल्में तो पहली बार निर्देशक बने लोगों के साथ हैं। मैं अपने पूरे दरवाजे, आंखें और कान खुले रखता हूं कि कहीं से भी कोई पहली बार स्क्रिप्ट लिख रहा है या कोई पहली बार फिल्म निर्देशित कर रहा है तो उनके साथ भी मैं काम करने को तैयार हूं बशर्ते उनकी कहानियों में उनकी फिल्मों में कुछ नया कहने को मिले।
तो क्या कहानियों को लेकर अब हिंदी सिनेमा को अपना नजरिया बदलना पड़ेगा या फिर अब भी एक निर्माता फिल्म तभी शुरू करेगा जब उसके पास एक अच्छा बिकाऊ हीरो हो?
स्टार सिस्टम हमारे सिनेमाघरों की उत्तरजीविता के लिए बहुत जरूरी है। पहली बात तो ये क्योंकि वह एक स्टार है तो वह आपको भरोसा देता है। एक उम्मीद देता है कि इसकी फिल्म अच्छी होगी। कुछ अलग होगा या मजा आएगा तो हम जाएंगे देखने, वह किसी तरह की भी फिल्म हो सकती है। वह ‘सूर्यवंशी’ भी हो सकती है। ‘स्पाडरमैन’ हो सकती है। एक नाम बना होता है लेकिन उसके बावजूद मनोरंजन की सामग्री जो है वह सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। पिछले दो साल में ओटीटी पर लोग अच्छा कॉन्टेंट देखने के आदी हो चुके हैं। वह अब समझते हैं कि दुनिया के कोने कोने में किस तरह का सिनेमा बनाया जा रहा है, किस तरह के शोज आ रहे हैं। उनको देखकर दर्शकों की सोच और आगे बढ़ रही है तो वह अब अच्छी फिल्में, अच्छी चीजें देखना चाहते हैं। हां ये बात अलग है कि ओटीटी पर कॉन्टेंट ज्यादा हावी होगा लेकिन सिनेमा के लिए स्टार सिस्टम जरूरी है।