वर्ल्ड डेस्क, अमर उजाला, काबुल
Published by: Harendra Chaudhary
Updated Sat, 15 Jan 2022 07:54 PM IST
सार
जानकारों के मुताबिक फिदायीन दस्तों का इतिहास पुराना है। इतिहास में ऐसे दस्ते की सबसे पहली मिसाल मार्च 1881 में हुए एक हमले के रूप में मिलती है। तब रूस के सेंट पीटर्सबर्ग शहर में इग्नाती ग्रिनेवित्स्की नाम के एक व्यक्ति ने जार एलेक्जेंडर द्वितीय की उनके राजमहल के ठीक बाहर हत्या कर दी थी। इस दौरान हुए विस्फोट में ग्रिनेवित्स्की भी मारा गया था…
मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक ‘फिदायीन दस्ता’ तैयार करने के अपने एलान पर तालिबान कायम है और वह इस दिशा में कदम बढ़ा रहा है। हाल ही में तालिबान ने घोषणा की थी कि अफगानिस्तान में ‘फिदायीन दस्ते’ तैयार किए जाएंगे, जो रक्षा मंत्रालय के तहत काम करेंगे। तालिबान के प्रवक्ता जबिहुल्लाह मुजाहिद ने कहा था कि इन दस्तों को विशेष कार्रवाइयों में लगाया जाएगा।
आतंकवादी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल
तालिबान की इस घोषणा के बाद से अफगानिस्तान में दहशत का माहौल बना हुआ है। जानकारों का कहना है कि तालिबान ने सचमुच ऐसे दस्ते बना लिए, तो उससे पास-पड़ोस के देशों के लिए भी सुरक्षा संबंधी नई चुनौतियां खड़ी होंगी। अफगानिस्तान के गैर सरकारी संगठन ह्यूमन राइट्स कमीशन की अध्यक्ष सहरजाद अकबर ने तालिबान की इस घोषणा की कड़ी निंदा की थी। उन्होंने ध्यान दिलाया था कि ऐसे दस्तों का हमेशा ही आतंकवादी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल किया गया है। अफगानिस्तान में गुजरे वर्षों के दौरान ऐसे हमलों का लंबा सिलसिला रहा है।
जानकारों के मुताबिक फिदायीन दस्तों का इतिहास पुराना है। इतिहास में ऐसे दस्ते की सबसे पहली मिसाल मार्च 1881 में हुए एक हमले के रूप में मिलती है। तब रूस के सेंट पीटर्सबर्ग शहर में इग्नाती ग्रिनेवित्स्की नाम के एक व्यक्ति ने जार एलेक्जेंडर द्वितीय की उनके राजमहल के ठीक बाहर हत्या कर दी थी। इस दौरान हुए विस्फोट में ग्रिनेवित्स्की भी मारा गया था।
दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जापान, जर्मनी और वियतनाम में भी आत्मघाती हमले हुए थे। लेकिन 21वीं सदी में मुख्य रूप से ऐसे हमले इस्लामी आतंकवादियों ने किए हैं। अफगानिस्तान, पाकिस्तान और इराक ऐसे हमलों के खास केंद्र रहे हैं। बताया जाता है कि तालिबान को ऐसे हमलों में महारत हासिल है। 2001 के बाद जब अफगानिस्तान में अमेरिका और नाटो की सेनाएं तैनात हुई थीं, तो 20 साल तक तालिबान ऐसे हमले संचालित करता रहा। ऐसे हमलों में बम या कोई अन्य विस्फोटक साथ लेकर आतंकवादी निशाने के पास जाता है और विस्फोट कर देता है।
छोटे बच्चे भी रहे आत्मघाती हमलों में शामिल
वेबसाइट एशिया टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक अफगानिस्तान में कई आत्मघाती हमले छोटे बच्चों ने भी किए हैं। उनमें कुछ बच्चों की उम्र तो महज नौ साल थी। जानकारों का कहना है कि छोटी उम्र के बच्चों को गुमराह करना आसान होता है। उन्हें ये समझाना आसान होता है कि किसी मकसद के लिए जान देने पर वे ‘शहीद’ कलाएंगे। विश्लेषकों का कहना है कि इस्लाम में ‘शहादत’ का महिमामंडन किया है।
पर्यवेक्षकों के मुताबिक इसी पुराने और हालिया इतिहास के कारण तालिबान की हाल की घोषणा को अफगानिस्तान में बेहद गंभीरता से लिया गया है। विश्लेषकों का कहना है कि हाल के दशकों में किसी देश में सरकारी संरक्षण में ‘फिदायीन दस्ते’ बनाए जाने की कोई मिसाल नहीं है। ऐसे दस्ते आतंकवादी संगठन बनाते रहे हैं, जिनके निशाने पर आम तौर पर सरकारें रही हैं। लेकिन अब तालिबान अपने संरक्षण में दस्ते बनाने जा रहा है। इससे सारी दुनिया के लिए खतरनाक मिसाल कायम होगी। विश्लेषकों के मुताबिक ये विडंबना ही है कि एक तरफ तालिबान अंतरराष्ट्रीय मान्यता पाने की कोशिश में है, और दूसरी तरफ अंतरराष्ट्रीय समुदाय को अस्वीकार्य ऐसे कदम उठा रहा है।
विस्तार
मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक ‘फिदायीन दस्ता’ तैयार करने के अपने एलान पर तालिबान कायम है और वह इस दिशा में कदम बढ़ा रहा है। हाल ही में तालिबान ने घोषणा की थी कि अफगानिस्तान में ‘फिदायीन दस्ते’ तैयार किए जाएंगे, जो रक्षा मंत्रालय के तहत काम करेंगे। तालिबान के प्रवक्ता जबिहुल्लाह मुजाहिद ने कहा था कि इन दस्तों को विशेष कार्रवाइयों में लगाया जाएगा।
आतंकवादी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल
तालिबान की इस घोषणा के बाद से अफगानिस्तान में दहशत का माहौल बना हुआ है। जानकारों का कहना है कि तालिबान ने सचमुच ऐसे दस्ते बना लिए, तो उससे पास-पड़ोस के देशों के लिए भी सुरक्षा संबंधी नई चुनौतियां खड़ी होंगी। अफगानिस्तान के गैर सरकारी संगठन ह्यूमन राइट्स कमीशन की अध्यक्ष सहरजाद अकबर ने तालिबान की इस घोषणा की कड़ी निंदा की थी। उन्होंने ध्यान दिलाया था कि ऐसे दस्तों का हमेशा ही आतंकवादी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल किया गया है। अफगानिस्तान में गुजरे वर्षों के दौरान ऐसे हमलों का लंबा सिलसिला रहा है।
जानकारों के मुताबिक फिदायीन दस्तों का इतिहास पुराना है। इतिहास में ऐसे दस्ते की सबसे पहली मिसाल मार्च 1881 में हुए एक हमले के रूप में मिलती है। तब रूस के सेंट पीटर्सबर्ग शहर में इग्नाती ग्रिनेवित्स्की नाम के एक व्यक्ति ने जार एलेक्जेंडर द्वितीय की उनके राजमहल के ठीक बाहर हत्या कर दी थी। इस दौरान हुए विस्फोट में ग्रिनेवित्स्की भी मारा गया था।
दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जापान, जर्मनी और वियतनाम में भी आत्मघाती हमले हुए थे। लेकिन 21वीं सदी में मुख्य रूप से ऐसे हमले इस्लामी आतंकवादियों ने किए हैं। अफगानिस्तान, पाकिस्तान और इराक ऐसे हमलों के खास केंद्र रहे हैं। बताया जाता है कि तालिबान को ऐसे हमलों में महारत हासिल है। 2001 के बाद जब अफगानिस्तान में अमेरिका और नाटो की सेनाएं तैनात हुई थीं, तो 20 साल तक तालिबान ऐसे हमले संचालित करता रहा। ऐसे हमलों में बम या कोई अन्य विस्फोटक साथ लेकर आतंकवादी निशाने के पास जाता है और विस्फोट कर देता है।
छोटे बच्चे भी रहे आत्मघाती हमलों में शामिल
वेबसाइट एशिया टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक अफगानिस्तान में कई आत्मघाती हमले छोटे बच्चों ने भी किए हैं। उनमें कुछ बच्चों की उम्र तो महज नौ साल थी। जानकारों का कहना है कि छोटी उम्र के बच्चों को गुमराह करना आसान होता है। उन्हें ये समझाना आसान होता है कि किसी मकसद के लिए जान देने पर वे ‘शहीद’ कलाएंगे। विश्लेषकों का कहना है कि इस्लाम में ‘शहादत’ का महिमामंडन किया है।
पर्यवेक्षकों के मुताबिक इसी पुराने और हालिया इतिहास के कारण तालिबान की हाल की घोषणा को अफगानिस्तान में बेहद गंभीरता से लिया गया है। विश्लेषकों का कहना है कि हाल के दशकों में किसी देश में सरकारी संरक्षण में ‘फिदायीन दस्ते’ बनाए जाने की कोई मिसाल नहीं है। ऐसे दस्ते आतंकवादी संगठन बनाते रहे हैं, जिनके निशाने पर आम तौर पर सरकारें रही हैं। लेकिन अब तालिबान अपने संरक्षण में दस्ते बनाने जा रहा है। इससे सारी दुनिया के लिए खतरनाक मिसाल कायम होगी। विश्लेषकों के मुताबिक ये विडंबना ही है कि एक तरफ तालिबान अंतरराष्ट्रीय मान्यता पाने की कोशिश में है, और दूसरी तरफ अंतरराष्ट्रीय समुदाय को अस्वीकार्य ऐसे कदम उठा रहा है।
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