दिल्ली दंगों को लेकर कथित भूमिका को लेकर दिल्ली विधानसभा समिति की ओर समन दिए जाने के खिलाफ फेसबुक इंडिया के वाइस प्रेसीडेंट अजीत मोहन की याचिका पर सुनवाई के दौरान कोर्ट ने यह सख्त टिप्पणी की।
साथ ही कहा कि दिल्ली फरवरी, 2020 के सांप्रदायिक दंगों की पुनरावृत्ति को बर्दाश्त नहीं कर सकती है। लिहाजा इस संबंध में सोशल मीडिया दिग्गज फेसबुक की भूमिका की जांच की जानी चाहिए।
जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस दिनेश माहेश्वरी और जस्टिस ऋषिकेश रॉय की पीठ ने 188 पन्नों के फैसले में कहा, फेसबुक के भारत में 27 करोड़ यूजर्स हैं। ऐसे में उसे जवाबदेह होना ही होगा। फेसबुक को बोलने की आजादी के लिए गंभीर भूमिका निभाई है।
हर आवाजों को अपने प्लेटफॉर्म पर जगह दी है। हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि यह विघटनकारी संदेशों, आवाजों और विचारधाराओं का मंच बन जाए। उसे इन तथ्यों को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए।
दिल्ली विधानसभा फेसबुक और उसके अधिकारियों से दिल्ली दंगों में उसकी कथित भूमिका के बारे में जानकारी मांग सकती है, लेकिन वह कानून-व्यवस्था के मुद्दे पर नहीं मांगी जा सकती और अभियोजक के रूप में कार्य नहीं कर सकती है। दिल्ली विधानसभा द्वारा दिल्ली दंगों (2020) की जांच के लिए शांति और सद्भाव समिति के गठन को गलत या नाजायज नहीं माना जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा, विधानसभा एक स्थानीय विधायिका और शासकीय निकाय होती है और इस नाते यह नहीं कहा जा सकता कि उसकी चिंताएं गलत या नाजायज हैं।
दिल्ली और केंद्र सरकारों के बीच लंबी और बार-बार की लड़ाई का साया अच्छे इरादे के साथ बनाई गई शांति और सद्भाव समिति पर भी पड़ा। दोनों के बीच शासकीय मुद्दों पर लड़ाई चलती रहती है। यही वजह है कि दोनों के बीच मुकदमेबाजी होती है।
अदालत ने कहा कि फरवरी, 2020 में दिल्ली के उत्तर पूर्व इलाके में हुए दंगों के संबंध में आपराधिक कार्रवाई पहले से ही ट्रायल कोर्ट के समक्ष लंबित है। शीर्ष अदालत का यह फैसला फेसबुक के वाइस प्रेसिडेंट (वीपी) अजित मोहन द्वारा दायर एक रिट याचिका पर आया है, जिसने विधानसभा के पैनल द्वारा समन की वैधता को चुनौती दी गई थी।
फेसबुक का कहना था कि उनके पास चुप रहने का अधिकार है। दरअसल, आप विधायक राघव चड्ढा की अध्यक्षता में शांति और सद्भाव समिति का गठन दो मार्च, 2020 को दिल्ली दंगों के बाद किया गया था, क्योंकि नफरत और विभाजन फैलाने के लिए एक तंत्र के रूप में फेसबुक प्लेटफॉर्म की भूमिका पर गंभीर सवाल उठाए गए थे।
सोशल मीडिया पर तोड़ मरोड़ से खतरे में पड़ जाती है चुनाव प्रक्रिया
पीठ ने कहा, चुनाव प्रक्रिया एक लोकतांत्रिक सरकार की नींव है। चुनाव प्रक्रिया तब खतरे में पड़ जाती है, जब सोशल मीडिया पर चीजों को तोड़-मरोड़कर पेश किया जाता है। इससे कई बार सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म कभी-कभी अनियंत्रित रूप से बेकाबू हो सकती है और उसके लिए खुद चुनौतियां खड़ी हो सकती हैं।
भारत की विविधता में एकता को बाधित करने की इजाजत नहीं दी सकते
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यह भी कहा है कि हमारे देश की विशाल जनसंख्या के लिए फेसबुक एक महत्वपूर्ण लक्ष्य है। 27 करोड़ भारतीय फेसबुक पर हैं। संस्कृति, भोजन, वस्त्र, भाषा, धर्म, परंपराओं में भारत में पूरे यूरोप से अधिक विविधता है।
भारत की विविधता में एकता के साथ किसी प्रकार का समझौता नहीं किया जा सकता है। अज्ञानता या निर्णायक भूमिका न होने का दावा कर फेसबुक को विविधता में एकता को बाधित करने की इजाजत नहीं दी जा सकती।
फेसबुक के वीपी को समिति के समक्ष पेश होना ही होगा
पीठ ने कहा, दिल्ली विधानसभा की शांति एवं सौहार्द समिति के पास यह पूरा अधिकार है कि वह फेसबुक के अधिकारियों को किसी मसले पर समन कर सके। समिति के पास सवाल करने का अधिकार है, लेकिन वह कोई सजा नहीं सुना सकती है। इसी के साथ सुप्रीम कोर्ट ने समिति द्वारा भेजे गए समन को रद्द करने से इनकार कर दिया। ऐसे में अब फेसबुक के वीपी को अजित मोहन को समिति के समक्ष पेश होना पडे़गा।
कोर्ट ने अजीत मोहन द्वारा की गई दंडात्मक कार्रवाई की आशंका को प्रीमैच्योर करार दिया। कोर्ट ने कहा, फेसबुक एक ऐसा मंच है जहां राजनीतिक मतभेद नजर आते हैं, ऐसे में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को दंगों के मुद्दे से अपना हाथ झाड़ने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।
चड्ढा के बयान पर जताई नाराजगी
शीर्ष अदालत ने हालांकि चड्ढा द्वारा दिए गए उन बयानों पर नाराजगी जताई है कि फेसबुक को आरोपी के रूप में नामित किया जाना चाहिए और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के अधिकारियों को सुने बिना दंगों में मुकदमा चलाया जाना चाहिए।
