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अध्ययन : मौत की सजा पाए मुजरिमों को सुनाई देती हैं अजीब आवाजें, राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय दिल्ली ने दी रिपोर्ट

एजेंसी, नई दिल्ली
Published by: देव कश्यप
Updated Fri, 22 Oct 2021 07:00 AM IST

सार

अध्ययन का नेतृत्व कर रहीं मैत्रेयी मिश्रा ने बताया कि अंतरराष्ट्रीय कानून मानसिक रोगियों को मौत की सजा पर अमल की इजाजत नहीं देते। हालांकि भारत में ऐसे 9 मुजरिमों के मानसिक रूप से बीमार होने की बात कभी अदालतों को बताई ही नहीं गई। 

सांकेतिक तस्वीर
– फोटो : सोशल मीडिया

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मौत की सजा पाए मुजरिमों में से 62 प्रतिशत किसी न किसी मानसिक बीमारी से पीड़ित हैं और इनमें से करीब आधे जेल में आत्महत्या करने का विचार करते हैं। उन्हें अजीब आवाजें सुनाई देती हैं, देवी भी दिखती हैं, वे आत्महत्या की कोशिश तक कर लेते हैं। यह दावा राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय दिल्ली ने देश में यह सजा पाए 88 मुजरिमों पर करीब पांच वर्ष के अध्ययन में किया है। इनमें तीन महिलाएं भी हैं।

प्रोजेक्ट 39ए नाम से अपराध न्याय कार्यक्रम में यह अध्ययन किया गया। इसकी रिपोर्ट जारी करते हुए बुधवार को हुई एक पैनल चर्चा में उड़ीसा हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस एस मुरलीधर ने कहा कि मौत की सजा से जुड़े सभी आयाम और समाज पर इसके असर को देखने की जरूरत है। अध्ययन का नेतृत्व कर रहीं मैत्रेयी मिश्रा ने बताया कि अंतरराष्ट्रीय कानून मानसिक रोगियों को मौत की सजा पर अमल की इजाजत नहीं देते। हालांकि भारत में ऐसे 9 मुजरिमों के मानसिक रूप से बीमार होने की बात कभी अदालतों को बताई ही नहीं गई। 

अध्ययन के नतीजे

  • 62.2 फीसदी मुजरिम जूझ रहे मानसिक बीमारी से
  • 75 फीसदी की सोचने-समझने की क्षमता कम हो गई
  • 50 फीसदी ने बताया कि वे आत्महत्या के बारे में जेल में विचार करते हैं।

11 फीसदी अपनी बौद्धिक क्षमता खो चुके

  • 35.3 फीसदी में गंभीर मानसिक समस्या, 22.6% मानसिक बेचैनी से पीड़ित
  • 6.8 फीसदी में साइकोसिस (अपनी वास्तविकता को अलग मानने लगना)
क्या हुआ मौत की सजा पाए मुजरिमों का?
पांच साल के दौरान इन 88 मुजरिमों में से 19 रिहा हो गए, हालांकि इनमें से 13 में मानसिक समस्याएं बनी रहीं। तीन ने आत्महत्या की कोशिश भी की। वहीं 33 की सजा उम्रकैद में बदली गई। अध्ययन में जिन 34 द्वारा आत्महत्या करने की आशंका जताई गई थी उनमें से 20 की मौत की सजा बदली गई।

इन कैदियों का परिवार भी भोगता त्रासदी
रिपोर्ट में मौत की सजा पाए लोगों को ‘जीते-जागते मृतक’ बताया गया। उनके जेल में रहने के दौरान परिजन भी गंभीर मानसिक संताप व त्रासदी से गुजरते हैं। उन्हें नहीं पता होता कि मुजरिम का क्या होगा, बचेगा या मारा जाएगा। हर दिन यह सवाल उन्हें अशांत रखता है। सामाजिक कलंक से बचने के लिए वे यह सवाल किसी से साझा भी नहीं करते।

बचपन, गरीबी और पारिवारिक माहौल मिला खराब
मौत की सजा पाए इन 88 मुजरिमों में 46 का बचपन शारीरिक व मौखिक शोषण में गुजरा। 64 ने उपेक्षापूर्ण जीवन जिया, 73 को अशांत पारिवारिक माहौल मिला। 56 ने प्राकृतिक आपदा, हादसे और शारीरिक हिंसा के तीन से ज्यादा मामले सहे।

विस्तार

मौत की सजा पाए मुजरिमों में से 62 प्रतिशत किसी न किसी मानसिक बीमारी से पीड़ित हैं और इनमें से करीब आधे जेल में आत्महत्या करने का विचार करते हैं। उन्हें अजीब आवाजें सुनाई देती हैं, देवी भी दिखती हैं, वे आत्महत्या की कोशिश तक कर लेते हैं। यह दावा राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय दिल्ली ने देश में यह सजा पाए 88 मुजरिमों पर करीब पांच वर्ष के अध्ययन में किया है। इनमें तीन महिलाएं भी हैं।

प्रोजेक्ट 39ए नाम से अपराध न्याय कार्यक्रम में यह अध्ययन किया गया। इसकी रिपोर्ट जारी करते हुए बुधवार को हुई एक पैनल चर्चा में उड़ीसा हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस एस मुरलीधर ने कहा कि मौत की सजा से जुड़े सभी आयाम और समाज पर इसके असर को देखने की जरूरत है। अध्ययन का नेतृत्व कर रहीं मैत्रेयी मिश्रा ने बताया कि अंतरराष्ट्रीय कानून मानसिक रोगियों को मौत की सजा पर अमल की इजाजत नहीं देते। हालांकि भारत में ऐसे 9 मुजरिमों के मानसिक रूप से बीमार होने की बात कभी अदालतों को बताई ही नहीं गई। 

अध्ययन के नतीजे

  • 62.2 फीसदी मुजरिम जूझ रहे मानसिक बीमारी से
  • 75 फीसदी की सोचने-समझने की क्षमता कम हो गई
  • 50 फीसदी ने बताया कि वे आत्महत्या के बारे में जेल में विचार करते हैं।

11 फीसदी अपनी बौद्धिक क्षमता खो चुके

  • 35.3 फीसदी में गंभीर मानसिक समस्या, 22.6% मानसिक बेचैनी से पीड़ित
  • 6.8 फीसदी में साइकोसिस (अपनी वास्तविकता को अलग मानने लगना)

क्या हुआ मौत की सजा पाए मुजरिमों का?

पांच साल के दौरान इन 88 मुजरिमों में से 19 रिहा हो गए, हालांकि इनमें से 13 में मानसिक समस्याएं बनी रहीं। तीन ने आत्महत्या की कोशिश भी की। वहीं 33 की सजा उम्रकैद में बदली गई। अध्ययन में जिन 34 द्वारा आत्महत्या करने की आशंका जताई गई थी उनमें से 20 की मौत की सजा बदली गई।

इन कैदियों का परिवार भी भोगता त्रासदी

रिपोर्ट में मौत की सजा पाए लोगों को ‘जीते-जागते मृतक’ बताया गया। उनके जेल में रहने के दौरान परिजन भी गंभीर मानसिक संताप व त्रासदी से गुजरते हैं। उन्हें नहीं पता होता कि मुजरिम का क्या होगा, बचेगा या मारा जाएगा। हर दिन यह सवाल उन्हें अशांत रखता है। सामाजिक कलंक से बचने के लिए वे यह सवाल किसी से साझा भी नहीं करते।

बचपन, गरीबी और पारिवारिक माहौल मिला खराब

मौत की सजा पाए इन 88 मुजरिमों में 46 का बचपन शारीरिक व मौखिक शोषण में गुजरा। 64 ने उपेक्षापूर्ण जीवन जिया, 73 को अशांत पारिवारिक माहौल मिला। 56 ने प्राकृतिक आपदा, हादसे और शारीरिक हिंसा के तीन से ज्यादा मामले सहे।

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